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शर्वरीषु शशिना किम्
वा
अन्हि विवस्वता किम् निष्पन्नशालिवनशालिनि जीवलोके जलभारन जलधरै कियत् कार्यम्
प्रसन्नता ९१ - रात्रि मे - चन्द्रमा से क्या प्रयोजन? - अथवा
दिन मे-दिवस मे - सूर्य से क्या प्रयोजन? -- परिपक्व धान से वनो के सुशोभित हो जाने पर - भूलोक मे-पृथ्वी मे - पानी के भार से नीचे की ओर झुके हुए - बादलो के द्वारा - कितना सा काम निकलता है ? अर्थात् कुछ भी
नही।
परमार्थ की दृष्टि से प्रस्तुत गाथा भक्तामर स्तोत्र की एक अपूर्व गाथा है। निमित्त कारण का अत्यन्त महत्व प्रस्तुत करनेवाले इस स्तोत्र मे झलकता निश्चयात्मक स्वरूप यह इस गाथा की विशिष्टता है। आत्मा जब तक परमात्मा की भक्ति बाह्य रूप से करता है वह परमात्मा से सर्वथा भित्र है। भक्ति की चरम सीमा मे यह भिन्नता समाप्त होती है। और भिन्न अभिन्न बन जाता है।
यहा धान्य की फसल पक जाने पर पानी की निरर्थकता बताकर साधक की एक उच्चदशा का आलोकन कराया है। साधक कहता है- हे परमात्मा । तुझे सूर्य कहूँ या चन्द्र ? मै स्वय भी एक सूर्य हूँ लेकिन वह, जिसका सहजस्वरूप अप्रकट है। इसीलिये वह अनुदीय है। एक बार साधना की परिपक्वता आने पर मेरा आत्मसूर्य या आत्मविधु स्वय प्रकाशमान-उदीयमान हो जाएगा। परिपक्वता के लिये ही प्रभु तेरा स्मरण कर मैं प्रकाशमान होने का प्रयास करता हूँ। जब मैं स्वय प्रकाशमान हो जाऊँगा, तब तुझ मे और मुझ मे क्या फरक रहेगा? अर्थात कुछ नही। ___ गौतम स्वामी के बारे मे ऐसा कथन है कि एक बार १५00 तापस सन्यासियो को दीक्षित कर वे परमात्मा महावीर के पास आ रहे थे। मार्ग मे नूतन दीक्षितों को धर्म, आत्मा
और परमात्मा का स्वरूप समझा रहे थे। यह सब सुनते-सुनते ही नये मुनियो को पूर्ण केवलज्ञान हो गया था, और वे केवलियो की सभा मे जा बैठे थे।गौतमस्वामी छदमस्थ थे, उन्होने कहा-आपको वहा नहीं बैठना है, तब परमात्मा महावीर ने कहा-गौतम। वे वहीं सही हैं, अब मुझ मे और उन मे कोई अन्तर नहीं है। __इस गाथा मे साधक परमात्मा से अपनी छद्मस्थदशा की सवेदना प्रकट कर परम की कृपा से शीघ्र पूर्ण-ज्ञान की शुभकामना करता है।
"जीवलोके" शब्द साधक की ऐसी ही दशा का द्योतक है और ऐसे मे परमात्मा की अत्यन्त आवश्यकता का संकेत है। जीवन में साधना की खेती के पक जाने पर प्रभु तेरी