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८२ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि दीपक के ज्योतिर्मय भाव-स्पर्श से हमारा चैतन्य दीपक भी तत्स्वरूप ज्योतिर्मान हो सकता है। तब फिर हम मे और परमात्मा मे कोई अन्तर नही हो सकता है। परिवर्तन का यह कितना महान् सिद्धान्त है। हम भी सर्वथा विकार रहित, कर्म-कषाय रहित हो सकते हैं। मात्र साधना-भक्ति द्वारा उनके महान् भाव-स्पर्श की आवश्यकता है। परम मे सभी चरम को परम बनाने की महान सिद्धि/शक्ति है। हम स्वय परमात्म स्वरूप हैं, हम मे और उन मे कोई फर्क नही है।
सर्वथा ससारी सर्वदा कर्मों से घिरा हुआ यह जीवात्मा परमात्मा बन सकता है। कितना अद्भुत सिद्धान्त है यह। सदा ज्ञानावरणीय से आवरित आवरण मुक्त हो सहज केवलज्ञान प्रकाश से अनन्तज्ञानमय होता है। अनन्त दर्शन को प्रकट करता है। सर्वथा व्याकुलता रहित निज सहज अव्याबाध आत्मिक स्वरूप को उपलब्ध कर लेता है।
परिवर्तन का यह सिद्धान्त जैन दार्शनिक धरातल पर अत्यन्त मूल्यवान और महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। सामान्यत व्यक्ति स्वय को कर्मवधन मे बधा हुआ मानकर अत्यन्त लाचार और विवश मान रहा है। फलत: वह कछ नही कर पाता है। जब भी कोई द ख की अनुभूति को वह पाता है तो उसे कर्मोदय मानकर सात्वना पाता है। कर्मोदय से जीव सुख-दुःख की अनुभूति अवश्य पाता है। परन्तु, कर्मों के उदय के पूर्व व्यक्ति इसके परिवर्तन मे स्वतत्र है। वह उसे बदल सकता है, समाप्त कर सकता है, या पहले भी उदय मे ला सकता है। कर्म बधन से उदय के बीच के इस अवसर को कर्म-सिद्धान्त मे अबाधाकाल यानि Extension Period कहते हैं। "जो किया है वह भोगना ही पडेगा।" इस सामान्य सिद्धान्त मे कर्मशास्त्र एक बहुत बड़ा अपवाद सिद्धान्त भी समझाता है। कर्म-सिद्धान्त मे इसे उद्वर्तन, अपवर्तन, उदीरणा और सक्रमण कहते हैं। हम आज यहा जिस परिवर्तन पर सोच रहे हैं वह हमे इस अपवाद से बहुत कुछ प्रदान करता है। सक्रमणकरण यह परिवर्तन का प्रमुख सिद्धान्त है।
आगम मे इसे इन शब्दो मे कहा हैचउविहे कम्मे पण्णत्ते, त जहा१. सुभे नाममेगे सुभविवागे, २ सुभे नाममेगे असुभविवागे, ३. अंसुभे नाममेगे सुभविवागे, ४. असुभे नाममेगे असुभविवागे।
-ठाण ४।६०३ इसमे दूसरा और तीसरा-ये दोनो विकल्प महत्त्वपूर्ण हैं और सक्रमण के सिद्धान्त के प्ररूपक हैं। एक होता है शुभ, पर उसका फल अशुभ होता है। दूसरा अशुभ होता है पर उसका फल शुभ होता है। बँधा हुआ है पुण्य कर्म, पर उसका फल पाप होता है। बँधा हुआ