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भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
प्रकटीकरोषि
जगत्प्रकाश
-
अपर
दीप
असि
यहा पर "दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ। जगत्प्रकाश द्वारा परमात्मा को अपूर्व परम दीपक के रूप मे सबोधित किया है। प्रथम तीन पंक्तियो मे सामान्य दीपक के कुछ दुष्प्रभावित कारणो को प्रस्तुत कर परमात्मा को दीपक से अनुपम प्ररूपित किया, परतु अतिम पंक्ति मे वृत्ति परिवर्तन करानेवाले इस महान तत्व को दीपक से बढ़कर कोई दूसरा उपमान न देखकर अपूर्व दीपक के रूप मे प्रज्ञापित किया।
प्रकट कर रहे हो, आलोकित कर रहे हो
(d) विश्वभर को प्रकाशित करने वाले (आप)
अपूर्व
दीपक
-
हो
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आप दीपक हो परन्तु दीपक से सम्बन्धित कारणो से रहित हो-इन कारणो मे भी बड़ा रहस्य है
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१ निर्धूम - सामान्य दीपक प्रकाशित होता है पर उसमे निरतर धुवाँ होता है। आप अपूर्व दीपक हो । आप मे कोई धुँवा नही है क्योकि धुवॉ कालिमा, धुधलापन, व्याकुलता और गरमी का प्रतीक है।
परम प्रभु तू घाति कर्म से सर्वथा रहित है। ये चारो कर्म धुवे की भाति हैं।
१ ज्ञानावरणीय कर्म -कालिमा का प्रतीक है, स्वय ज्योतिर्मान ज्ञान स्वरूप आत्मा इस कर्म के प्रभाव से अधकारमय है । आप ज्ञानावरणीय कर्म से रहित हो अत सदा ज्योतिर्मय हो ।
२ दर्शनावरणीय कर्म- जो धुधलापन का प्रतीक है क्योकि जीव की यथास्थिति रूप वास्तविक बोध में बाधक कारण है। आप इस कर्मावरण से सर्वथा रहित हो अत अनन्तदर्शी हो ।
३ मोहनीय कर्म - इसका मुख्य काम जीव को आकुल व्याकुल कर देना है | अनन्त अव्याबाध आनद स्वरूप आत्मा इसी कर्म से बेचैन होकर प्रबल भ्राति मे अनादिकाल व्यतीत करता है। आप वीतरागी हो अत मोहनीय रजित रागद्वेषादि से सर्वथा रहित हो ।
अतराय कर्म-आत्मा इस कर्म के कारण उल्लास रहित होकर नि सत्त्व बन जाता है। अत: आप अनन्तवीर्य सम्पन्न हो ।
२. वर्तिका (बाती) से रहित - मोह और मिथ्यात्वभाव रूप बाती से भी तू रहित है। ३ अपवर्जिततैलपूर -याने लबालब तेल से रहित । तैल चिकनापन का प्रतीक है । गोद और तैल दोनो चिकने पदार्थ गिने जाते हैं पर गोद का चिकनापन पानी से साफ हो जाता है, तैल का नही । इसीलिए स्नेह - रागभाव को तेल की उपमा दी गई है। परमात्मा तू परम वीतरागी है । अत राग रूपी तैल से तू सर्वथा रहित है।