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। ७.प्रारम्भ
प्रारम्भ की श्रेष्ट होता है जिसमें पूर्णाहुति निहित हो। जिस प्रारम्भ से सफलतापूर्वक
हो सकता है, उस प्रारम्भ से हमाग कोई सम्बन्ध नही होता। जिस प्रक्रिया के ग मानना का मकन मिलता हो उसी का हम अपने जीवन में प्रयोग करते हैं, जिस मानि गहने सफलता दृष्टिगोचर होती हो उसके लिए हम प्रयल करते हैं।
आटव श्लोक का प्रारभ भक्तामर स्तोत्र का प्रारम्भ है। आठवे श्लोक का प्रारभ भक्त मटान के मिलन का प्रारभ है। आठवें श्लोक का प्रारभ हमारे निज स्वरूप की पहचान
गरम और आटवे लाक का प्रारभ हमारी अनादि काल की जो खोज चल रही है म पूर्ण उपलब्धि का प्रारभ है। इस प्रकार यह श्लोक दहुत महत्व का श्लोक है। ७ "पासक परमाला के साय भेद रहा है। मे अलग हूँ, परम स्वम्प मुझ से अलग है। ", "द तक अलगाव हैं तद तक हम जिस पूर्णाहति की आकाक्षा करते हैं वह परिपूर्ण " मम दम आकाक्षा के माय अनुरा। और अनुराग के साथ उपलब्धि, ये हमार्ग
मार्धकता।