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मुक्तिबोध ४१ प्रथम श्लाक में परमात्मा के लिए एक विशेषण का प्रयोग किया गया "उद्योतकम् " - उद्यात करनेवाले, प्रकाश करनेवाले। जो प्रकाश करता है, आलोक जगाता है वह इन्कार को तोड़ता है, अत प्रथम श्लोक मे कहा है “दलितपापतमो वितानम्" पाप के सर का नाश करनेवाले। आप ध्यानपूर्वक देखेगे तो इस श्लोक मे उस विशेषण का पाथ यहाँ पाओगे।
अब यहाँ आग“सूर्य अशु भिन्न” शब्द है । अशु का मतलब होता है किरण। सूर्योदय ॐ पहल उजाला शुरू हो जाता है। उसके बाद सूर्योदय होता है। करीब-करीब हमारे यहाँ उन उजाल की २४ मिनट की मर्यादा मानी गई है। अत कहते हैं-सूर्य की किरणे निकलने के माथ ही अधकार को क्षण भर में छिन्न-भिन्न कर देती हैं, भेद कर देती हैं, तोड़ देती हैं और अधकार को प्रकाश में परिवर्तित कर देती हैं।
इमालिए कहा है- " भत्तीइ जिणवराण खिष्पति पुव्वसचिया कम्मा" परमात्मा के • वन से दह और आत्मा मे रही हुई अभेद बुद्धि छिन्न-भिन्न हो जाती है। इसे ही भेदविज्ञान करते हैं। यह दह मेरे से सर्वथा भिन्न है। बेड़ियो के बघन तो देह पर लटक रहे हैं। न देह 11 है, न में देह का हूँ। देह में उत्पन्न कोई भी अवस्था मेरी नहीं है।
इस भेद विज्ञान से अनादिकाल का मिथ्यात्व टूटता है, सम्यक्त्व प्रकट होता है। जब
पर आत्मा में भेद बुद्धि प्रकट होती है, देह का अध्यास छूटता है तब आत्मा का
दर्शन स्वरूप प्रकट होता है। कहा है
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"छूटे देहाध्यास तो नहीं कर्ता तू कर्म,
नहीं भोक्ता तू तेहनो एज धर्म नो मर्म ।
एज धर्मथी मोक्ष छे तू छे मोक्ष स्वरूप,. अनत दर्शन ज्ञान तू अव्याबाध स्वरूप” ॥ 'अमनिद्धि" में कहा है
*ट दर्द नु स्वप्न पण जागृत थता समाय,
तन विभाव अनादिनो ज्ञान घता दूर थाय ।
अ कि दर्दों का स्वप्न जगने पर क्षणभर मे ही टूट जाता है। उसी प्रकार ज्ञान होते ही * दे काल की विभाव पर्याय, देह में रही हुई आत्मबुद्धि क्षणभर मे ही दूर हो जाती है। श्री निापतिसूरिजी महाराज ने “किकर्पूरमय स्तोत्र” बनाया है जिसके अन्तर्गत एनीहरण प्रस्तुत किये हैं
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विश्वव्यापितमो हिनस्ति तरणिर्दालोपि कल्पाङ्कुरो ।
शरिद्रयाणि गजावली हरिशिशु काष्टानि वन्हे कण || (श्लोक ६ ) कारण तुरत का प्रति सूर्य भी क्षणभर में नाश कर सकता है।