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६४ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
तमने जोया पछीथी आ दशा कायम रही,
कोई पण वातावरणमा मारू मन परोवायु नही ||”
योगिराज आनन्दघनजी ने चर्म-नयन और दिव्यनयन (आत्मचक्षु) का भेद प्रस्तुत कर दर्शन (मार्ग) की महिमा बतायी है
चरम नयन करी मारग जोवता, भूल्यो सकल ससार रे,
जे नयणे करी मारग जोइए,
नयन ते दिव्य विचार रे
चर्म चक्षुओ से देखना, देखना है और दिव्य नयनो से देखना दर्शन है। जिसने परमात्मा को नही देखा उसने कुछ नही देखा,
जिसने परमात्मा के दर्शन किये उसने कुछ देखा और,
जिसने परमात्मा को आँखो मे समाया उसने सब कुछ देखा ।
उसके लिए अब ससार मे कुछ भी दर्शनीय नही है । यहाँ सारी तुलनाये मिट जाती हैं। सारी उपमाएँ भी समाप्त हो जाती हैं। वह अतुलनीय, अनुपम और अपूर्व आत्मसात् हो जाता है।
एक जगह आनन्दघन जी ने यह भी कहा है
“सामान्ये करी दरिसण दोहिलु निर्णय सकल विशेष
मद मे घेर्यो रे अधो केम करे, रवि शशि रूप विलेख "
सामान्य बुद्धि से आपके दर्शन कैसे हो सकते हैं क्योंकि कोई व्यक्ति अधा हो और उसे मदिरा पिलाकर सूर्य चन्द्र का वर्णन करने के लिए कहने पर क्या हो सकता है ? इसी प्रकार ज्ञानावरणीय से आवृत व्यक्ति यदि मोहमदिरा पी ले और उसे आपका वर्णन करने का कहा जाय तो क्या हो सकता है ?
ससार मे हम जब किसी भी सुन्दर व्यक्ति, वस्तु या पदार्थ को देखते हैं तब उससे पूर्व देखे हुए व्यक्ति, वस्तु या पदार्थ से उसकी तुलना करते हैं। इससे यह अच्छा या बुरा है, अधिक या कम है। सामान्यत तर और तम के विभाग बनते जाते हैं और हमारी अनादिकालीन वासनाये बदलती स्थिति या परिवर्तित विविधता में अपनत्व स्थापित करती हैं। परिणामत प्रेम के दर्शन के पात्र और पदार्थ परिस्थिति के साथ बदलते जाते हैं।
हम कभी तो सुन्दरता कपड़ो मे देखते हैं तो कभी Make-up में, कभी कमरो के Furnitures मे तो कभी सुन्दर भोजन मे देखते रहते हैं । परन्तु, हमने कभी भावो की सुन्दरता नहीं देखी। जिसे देखने के बाद कुछ दर्शनीय नही रहता है ।