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७४ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
__ ये सश्रितास्त्रिजगदीश्वर नाथमेक,
कस्तान निवारयति सचरतो यथेष्टम्॥१४॥ त्रिजगदीश्वर।
- तीन लोको के स्वामी। सपूर्णमण्डलशशाङ्ककलाकलापशुभ्रा. - पूर्णमासी के चन्द्र-मण्डल की
कलाओ के सदृश समुज्ज्वल तव गुणा
- आप के गुण त्रिभुवनम्
- तीन लोको का लमयन्ति
उल्लघन करते हैं अर्थात् त्रिभुवन मे
व्याप्त हैं।
- जो एकम्
एक अर्थात् अद्वितीय नाथम्
त्रिभुवन के स्वामी को सश्रिता
आश्रय करके रहने वाले यथेष्टम्
स्वेच्छानुसार अर्थात् अपनी इच्छा के अनुसार
सम्पूर्ण लोक मे विचरण करने से तान् क
- कौन (पुरुष) निवारयति
निवारण कर सकता है अर्थात् रोक
सकता है ? कोई भी नही। यह कैसा आश्चर्य, १३वे श्लोक मे जिसको स्पष्टत अस्वीकार कर रहे थे उसका यहा सहर्ष स्वीकार हो रहा है ? सहज उभरते हुए इस आश्चर्य की यथार्थता यह है कि आचार्यश्री की इच्छा परमात्मा के मुख को चन्द्र के साथ उपमित करने की नहीं है, परंतु मुखदर्शन की इस विशिष्टता को वर्णित करने में अक्षम हो रहे हैं। बिना उपमा के इसे समझाना या दर्शाना दुरूह है और चन्द्रमा के अतिरिक्त दूसरा कोई उपमान ठीक नहीं बैठ रहा है अत श्लोक १३ मे परमात्मा के गुणो के लिए सर्वकलाओं से विकसित एव विलसित पूर्णमासी चन्द्र को उपमान के रूप में पसन्द करते हैं। परमात्मा के सर्वलोक में व्याप्तत्व के सिद्धान्त को गुणों के द्वारा सिद्ध करते हैं। अनतगुण सम्पन्न परमात्मा के गुण यथेच्छ अप्रतिबध रूप से सपूर्ण लोक में व्याप्त हैं।
इस श्लोक में परमात्मा का सार्वभौमत्व प्रकट करने के साथ-साथ इसमें सम्बन्ध प्रेरणा भी व्यक्त की है। यह पद्य परमात्मा की शरण के सर्वोच्च स्वीकार की सफल
सचरत
उनको