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आश्चर्य ५५ - जो (मालिक)
- इस लोक मे आश्रितम् - अपने अधीन सेवक को भूत्या
- विभूति से, धन-सम्पत्ति से, ऐश्वर्य से आत्मममम् - अपने समान
- नहीं करोति
- करता है यहा पर दो सम्बोधन चिह्नो द्वारा परमात्मा को सम्बोधित किया गया है। १ भुवनभूषण और २ भूतनाध
दोनो ही सम्बोधन विशिष्ट सम्बन्ध का सामजस्य प्रस्तुत करते हैं।
भुवनभूपण से मतलद है-हे परमात्मा आप इस लोक के भूषण हो, अलकार हो। आपसे यह भूवन सशोभित होता है। लोक से सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद कर जो लोकोत्तर हो गये. लोक के अग्रभाग मे सिद्धावस्था को प्राप्त कर चुके उनका फिर लोक के साथ क्या सम्बन्ध हो सकता है ? ऐसा प्रश्न हम सबको हो सकता है। भक्तामर स्तोत्र इस प्रश्न का उत्तर देकर लोकोत्तर का लोक पर रहा प्रभाव दर्शाता है। श्लोक सात के द्वारा यह बताया कि परमात्मा से लोक आलोकित होता है। श्लोक आठ और नौ के द्वारा बताया परमात्मा से लोक प्रभावित होता है और यहाँ बता रहे हैं परमात्मा से लोक सुशोभित होता है। परमात्मा के आलोक से हमारा पापान्धकार हटता है। परमात्मा के प्रभाव से हमारे वीतरागभाव का अभाव हटता है और परमात्मा-सुशोभन से हमारी अनादिकालीन कर्मजन्य अशोभनीयता हटती है। जद मिथ्याभाव का अभाव और समभाव का आविर्भाव होता है तव ही भक्त परमात्मा के आलोक, प्रभाव और सुशोभन का अनुभव करता है।
दूमरा सम्दोधन है-हे भूतनाय भूत का मतलद है जीव। जो अपने आप मे सभूत है, जिसका कभी निर्माण नहीं हुआ है और जो भूत अतीत से, अनादिकाल से और सदा रहने वाला है। आचाराग सूत्र में कई जगह जीव के लिए "भूयाणं!" शब्द का प्रयोग हआ है। भूतनाय याने समस्त जीवराशि के नाय। जिनके दिना सद अनाय।
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(क) अपाए १, अप्प , उद६, सु १२२ (४) , swY 2 २. मु ४४४ (1) - य ६ रहे . मु ६८३ ६८४