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५८ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि ५ सासारिक भोग जो वास्तव मे सुख के बदले दुःख के ही साधन बनते हैं, उनसे
डरते रहना अर्थात् कभी भी लालच मे न पडना, अभीक्ष्ण सवेग है। थोडी भी शक्ति को बिना छिपाये आहारदान, अभयदान, ज्ञानदान आदि दानो को विवेकपूर्ण देना, यथाशक्ति त्याग है। कुछ भी शक्ति छिपाए बिना विवेकपूर्वक हर तरह की सहनशीलता का अभ्यास करना-यह यथाशक्ति तप है। चतुर्विध सघ और विशेषकर साधुओ को समाधि पहुंचाना अर्थात् वैसा करना
जिससे कि वे स्वस्थ रहें-सघसाधुसमाधिकरण है। ९ कोई भी गुणी यदि कठिनाई मे आ पडे, उस समय योग्य रीति से उसकी
कठिनाई को दूर करने का प्रयत्न ही वैयावृत्यकरण है। १० अरिहत भक्ति। ११ आचार्य भक्ति। १२ बहुश्रुतभक्ति। १३ प्रवचन भक्ति। १४ सामायिक आदि षड् आवश्यको के अनुष्ठान को भाव से न
छोडना-आवश्यकापरिहाणि है। १५ अभिमान छोडकर ज्ञानादि मोक्ष मार्ग को जीवन मे उतारना तथा दूसरो को
उसका उपदेश देकर प्रभाव बढ़ाना-मोक्षमार्ग-प्रभावना है' १६ जैसे बछडे पर गाय स्नेह रखती है, वैसे ही साधर्मियो पर निष्काम स्नेह रखना
प्रवचनवात्सल्य कहलाता है। __इस प्रकार परमात्म स्वरूप हम पा सकते हैं अर्थात् हम स्वय परमात्मा हो सकते हैं। न कारणो मे से प्रथम और द्वितीय कारण को भक्तामर स्तोत्र मे और विशेषरूप से इस लोक मे महत्व देते हुए कहा है-"भूत गुणै भवन्तम् अभिष्टुवन्त "। इन शब्दो की राख्या इस तरह से होती है। भूत शब्द का अर्थ होता है विद्यमान। यह गुण शब्द का
शेषण होता है। भवन्तम् अर्थात् आपकी। अभिष्टुवन्त का अर्थ है स्तुति करनेवाला। झ मे विद्यमान गुणो से तेरी स्तुति करने वाला तुझ समान हो जाता है। __भूत शब्द का आगम देशीय प्रज्ञापित अर्थ है जीव। जीव स्वय के गुणो से तुम्हारा भिष्टुवान बन जाता है। अभिष्टुवान शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण है। यहाँ ष्टु धातु को अभि" उपसर्ग लगकर यह शब्द बना अभिष्टु। इसमे वान् प्रत्यय लगने पर अभिष्टुवान् ब्द बना, जिसका बहुवचन होता है-अभिष्टुवन्त । सदा तेरे समीप रहकर तेरी स्तुति वात्सल्य) करने वाला तुझ स्वरूप को प्राप्त करले तो इसमें न अति अद्भुत न कोई बड़ा आश्चर्य है। क्योंकि, आत्मा का वास्तविक स्वरूप परमात्म-स्वरूप है। यह आत्मा की