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प्रभु-मिलन २५ वे (परमात्मा महावीर) प्रज्ञा के अक्षय सागर हैं, महाउदधि हे-समुद्र के समुद्र इसमे समा जात है, वे अनतपार हैं, अपरपार हैं, फिर भी अनत इसे पा जाते हैं। ऐसे तो अनत मिलकर भी इन एक को नहीं पा सकते हैं फिर भी अनतानत इन्हें पाकर स्वय अनत हो गये, अपरपार हो गये।
जम्बू। यदि प्रज्ञा से तुम महावीर को समझने का प्रयास करोगे तो महावीर को नहीं समझ पाआगे। चाहे जम्वू स्वामी हो, चाहे सुधर्मा स्वामी हो, चाहे मानतुगाचार्य हो, चाहे आउन्दघन हो, चाहे म हूँ, चाहे आप हो, लेकिन सबके सामने यही परिस्थिति आयेगी कि परमात्मा के गुण अनत हैं, नहीं गाये जा सकते हैं।
योगिराज अनदघन कहते हैं"गाय न जाणू, रिझाय न जाणू, ना जाणू सुरभेदा"
में न तो गा सकता हूँ, न वजा सकता हूँ, न खुद रीझ सकता हूँ, न तुझे रिझा सकता हूँ। ऐसी मेरी परिस्थिति मे हे गुणसमुद्र। "ते शशाककान्तान् गुणान् बुद्ध्या, वक्तु
सुरगुरु-प्रतिमोऽपि क क्षम । प्रश्न किया हे यहाँ पर कैसे समर्थ हो सकते हैं? कौन किमलिये? ते शशाककान्तान् गुणान् "ते" का मतलव तव, “तव" का मतलब तेरे। गुणा को उन्होंने यहाँ "शशाककान्तान्" शब्द से उपमित कर दिया है। तेरे गुण चन्द्रमा असतिल है।
सोचती हूँ यहाँ "वुया" व "शशाककान्तान्" शब्द के लिए हम तीसरे श्लोक और चौधे श्लोक को मिलाते चले जाये। दोनो मे "वद्धया" शब्द का प्रयोग है। तीसरा लोफ "वुया विनापि" शब्द से शुरू होता हे और यहाँ दूसरी पंक्ति मे “प्रतिमोऽपि बुदया" शब्द है। दुद्धि से किस प्रकार गुण गान करने में समर्थ हो सकते हैं क्योकि बुद्धि
नही। अत “बुद्ध्या' शब्द को पहले समझने का प्रयास करें। मै तो विना दुद्धि का हूँ लकिन बहुत से तेरे भक्त बुद्धिशाली हैं। हे भगवन् । सृष्टि मे अनेक तेरी भक्ति करने के अधिकारी है। जिसके हृदय मे भक्ति है, वे तेरे भक्त है। जो भी भक्त हे तेरी भक्ति करने के सम्पूर्ण अधिकारी हैं। म भले विना बुद्धि का हूँ लेकिन क्या कोई बुद्धिमान तेरी भक्ति कर मकता ह ? तेरे गुणो को गा सकता है ? तो कहते हैं बुद्धि से, बुद्धि-सम्पन्न यहाँ कोन माने - है। मुरगुरु याने देवो के गुरु। हालाकि देवो के गुरु का अर्थ वृहस्पति किया जाता है घर नदयों के गुरु न कही वृहस्पति की गिनती नहीं है। गुरु का अर्थ स्वामी होता कार देवा फस्दानी का मतलद शक्रेन्द्र, सौधर्मेन्द्र। बारह देवलोक के इन्द्र की यहाँ
सनी ,क्योकि जद-जव परमात्मा को कोई भी ज्ञान होता है, दीक्षा होती है, JER:, ति होता है, कोई भी कल्याणक होते हैं उस समय शकेन्द्रादि आते हैं कार माजी स्तुति करने है। तद मानतुपाचार्य के मामने प्रश्न आया ने मनुष्य होकर सीकर मसानो क्या इन्द्रादि देव कर सकते हैं ? तो कहा प्रतिमोऽपि वुया"
31जी दुति पाले रोई भी। वक्तु" याने फहन के लिये "क क्षम ।"