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श्लोक - ५
।। ५.बन्धन
L0ससार मे घटनाओ का, विषमताओ का आना अत्यन्त सहज एव स्वाभाविक है। व्यक्ति के जीवन में कुछ ऐसी विशिष्ट परिस्थितिया आती हैं जिन्हें व्यक्ति चाहते हुए भी नहीं रोक पाता है लेकिन घटनाओ मे भी घटनातीत होकर घटनाओ से किसी प्रकार से विचलित नहीं होना, साधना है। ऐसी उच्चकोटि की महान साधना का जीवन में प्रकट हो जाना, यही तो साधना का रहस्य है। जिस रहस्य को आचार्यश्री ने स्तोत्र द्वारा ससार के सामने प्रस्तुत कर दिया है। ___ मात्र वाह्य घटनाओ से ही परिचित नही रहते हुए उनके भीतरी अन्तस्थलो की ओर पहुँचगे, जहाँ पटनाओ मे रहते हुए आचार्यश्री घटनातीत हो गये। देह मे रहते हुए दहातीत हो गये। पार्थिव मे रहते हुए अपार्थिव के दर्शन कर लिये। आज "भक्तामर स्नोत्र'' को सिर्फ रहस्य का प्रतीक मानकर चमत्कारो से भरपूर मान लिया है। यद्यपि इसम चमत्कार है, इस बात में कोई शका नही है। व्यक्ति जो चाहता है वे सारे मनोवाछित इस ' स्तोत्र'' से पूर्ण होते हैं। ससार मे ओर कोई नही दे सके, ऐसी अनुपम उपलब्धि भी "भक्तामर स्तोत्र" के अर्न्तगत निहित है। जो चमत्कारो का भी चमत्कार है ओर वह यही है कि देह में रहते हुए भी देहातीत स्थिति का अनुभव करना। बधन मे रहते हुए भी निर्वन्ध की स्थिति का अनुभव करना। वर्तमान स्थिति मे देख रहे हैं-कर्म क्षेत्र मे व्यक्ति का अपना गामजाम्य बहुत कष्ट भरा होता जा रहा है। ऐसी स्थिति मे जीवन के वे रहस्य जो हमे अआदिकाल से नहीं मिल पा रहे हैं, उन्हें भक्ति के माध्यम से खोलने का काम आज भक्तामर स्तोत्र" कर रहा है।
जो परमात्मा के अमीम प्रेम के वधन मे वध गया, उसे वेड़ियो के बधन कैसे बाँध मक हैपिला यदि दधन में बंधे नही तो मिलन कैसे सफल हो? परमात्मा के प्रति होने ५ ली नhि का (धा मुक्ति का महामत्र है-सिद्धि का परम सूत्र है, योगो से जुड़ाकर 1.3 की ओर ले जाने वाला यत्र है, चौदह राजुलोक के सर्व शुभभावो की स्वीकृति का
दफ प्रति होने वाले इस साधना-वन्धन ने साधक मे पहले “को अह" मैं कौन
जसा उलाजी जिज्ञासा अनुसंधान का आधार दनी । अनुसघान आत्मा का । तर सो अहं" रूप साकार हो गया और आचार्यश्री के मुख से निकला
सोऽह तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश फतुं स्तव विगतशक्तिरपि प्रवृत्त ।