Book Title: Bhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 38
________________ आत्मा का परिचय १५ इस प्रकार ये दो श्लोक परमार्थ से पड्द्रव्यात्मक लोक स्वरूप होकर भी लोकाग्र का परम कारण स्वरूप हैं। "स्तोप्ये किलाहमपि त प्रथम जिनेन्द्र" का परमार्थ इस प्रकार है 'तं' याने उन। किसी तीसरे पुरुष के लिए इस "त" का प्रयोग हुआ है। ध्याता और ध्यान में ध्येय निश्चित होने पर भी सामने अस्पष्ट है। "भक्तामर स्तोत्र" मे यही एक ऐसा स्थान है जहाँ परमात्मा परोक्ष म रहकर साधक का ध्येय रहा है। आगे जाकर "त" का स्थान प्रत्यक्ष रूप विविध सवोधनो से परिलक्षित हो जाता है। प्रथम शब्द सामान्यत से प्रथम आदीश्वरनाथ का द्योतक हे और विशेष से यह प्रणाम और स्तुति में प्रणाम को प्राथमिकता देने के रूप मे भी अधिक अर्थ सगत होता है। नवकार मत्र की चूलिका मे नमस्कार को “पढम हवइ मगलम्" से प्रथम मगल कहा है। अर्थात् 'त जिनेन्द्र प्रथम सम्यक् प्रणम्य'-उन जिनेन्द्र को प्रथम नमस्कार कर वाद मे "किल'"-निश्चय से “अहं स्तोष्ये" स्तुति करूँगा। __ स्तोत्र होने से इसमें स्तुति मुख्य हे फिर भी मुख्य से प्रथम का महत्त्व दर्शाना इस श्लोक का अभिप्राय रहा है। जैसे विद्यार्थी का परीक्षा में सफल होना मुख्य हे परन्तु इससे प्रथग पढ़ना अनिवार्य है। भोजन मुख्य है परन्तु प्रधम आटा, चूल्हा अनिवार्य है। साधक के लिए मोक्ष मुख्य है परन्तु मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रथम कर्मक्षय आवश्यक है। इस प्रकार परम-मिलन के लिए स्तोत्र मुख्य है परन्तु प्रथम नमस्कार अनिवार्य है। ___"जिनेन्द्र" शब्द से तीर्थकर पद का संकेत है। वैसे "जिन" या "तीर्थकर" में विशेष अन्तर रही है। शान की दृष्टि से एक समान हैं। अन्तर सिर्फ तीर्थकर के विशेष तीर्थकर नामक का है। इस कर्म के प्रभाव से इनके द्वारा कई जीव पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति मे सफल रहते हैं। अत यहाँ गिनो के (अनेक केवलियो के) स्वामी जिनेन्द्र ऐसा कहा गया है। "किल" याने निश्चय से। साधना में निश्चयात्मक परिवल का अत्यन्त महत्व है। दृढ़ता से साधक परिस्थितियो से प्रभावित नहीं होता है। जव साधक किसी भी साधना का प्रारभ सकल्प के साथ करता है तो उसे सफलता निश्चित रूप से मिल सकती है। "मैं निश्चय से स्तुति करूँगा" ऐसा सकल्प करते हो आचार्यश्री फे ध्यान ने परमात्मा पधारते हैं। भक्त का मस्तक झुका हुआ है, आँखे बन्द , अन्तर्मन मे, समस्त आत्मचेतना मे, समस्त आत्मप्रदेशो मे परमात्मा का एक-रूप ध्यान है। परमात्मा ने भक्त के मस्तक पर हाथ रया और कहा "वत्स I में स्तुति करूना-ऐसा निश्चय करने वाला तू हे कौन ? तेरा परिचय दे।" भक्त परमात्मा को क्या उत्तर देगा, कते परिचय देगा? यह हम "भक्तामर स्तोत्र" के तीसरे श्लोक के माध्यम से देखो।जो भी भक्त है वे सव परमात्मा के इस प्रश्न को स्वय के माध्यम से समझने का प्रयास करेगे।

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