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परमात्मा का परिचय १३ इसीलिए महापुरुषों के चरणो मे झुकने से उनकी देहपर्याय से निकलती विशिष्ट ऊर्जा को नमा करने वाला अपने मस्तक से इन्हें धारण करता है। आशीर्वाद भी हाथो से दिया जाता है क्योकि ऊर्जा वहाँ से निकलती है। यह सारी आभा आशीर्वाद के द्वारा मस्तक मे प्रवाहित की जाती ह।
सिर से पैर तक विस्तृत शरीर मे ६00 अरव कोशिकाएँ हैं। ७ हजार २00 शिगएँ,७0 हजार माइल विस्तार मे व्याप्त हैं। सात चक्र है। आठ ग्रन्थिया हैं।
आचाराग सूत्र के श्रुतस्कन्धी अध्ययन १ के उद्देशक २ मे जीव की सवेदना के ३२ अग वताये हैं। इसका क्रम भी पर से लेकर सिर तक दिया है। जैसे-१ पैर,२ टखने, ३ जघा, ४ घुटने, ५ उरू, ६ कटि, ७ नाभि, ८ उदर, ९ पार्श्व-पसाल, १0 पीठ, ११ छाती, १२ हृदय, १३ म्तन, १४ कन्धे, १५ भुजा, १६ हाथ, १७ अगुली, १८ ख. १९ ग्रीवा (गर्दन), २0 टुड्डी, २१ होठ, २२ दॉत, २३ जीभ, २४ तालु, २५ गला, २६ कपोल, २७ कान, २८ नाक, २९ ऑस, ३० भोह, ३१ ललाट, ३२ शिर।
रक्षाकवच स्तोत्र जिन पजर मे सिर से पैर तक २४ मुख्य सवेदना-स्थानो मे २४ तीर्थकरा की प्रतिष्टा कर ऊर्जा को तरगित और प्रवाहित करने की माधना दर्शायी है।
यही साधता परिक्रमा "मालिमणिप्रभाणाम्-पादयुग" पद मे निहित है। परमार्थ की दूसरी दृष्टि से देखने पर१ भक्तामरप्रणतालिमणिप्रभाणामुद्योतकम्-यह पद परमात्मा के अनत
पूजातिशय का द्योतक है। २ दलितपापतमोवितानम्-यह पद अपायापगमातिशय की ओर संकेत करता है। ३ भवजले पतता जनानाम् आलम्बनम्-यह पद ज्ञानातिशय का सूचक है। जीव
तो अभी कर्मों से आवृत होने से अज्ञानी हे अत परमात्मा के ज्ञान का आलवन
ग्रहण करता है। ४ सकलवाङ्मय तत्त्ववोधात्-यह पद द्वादशागी का प्रतीक है। आर द्वादशागी
परमात्मा के त्रिपदीरूप वचनातिशय से प्रकट होती है। इसका तीसरा परमार्य ह-'प्रणत" शब्द का अर्थ है प्रकर्षभाव मे नमस्कृत। तात्पर्य से यह उमस्कार महामन्त्र से गर्भित है। १ "युगादा-प्रथम जिनेन्द्रम्"-यह पद शब्दो से परमात्मा ऋषभदेव की 'अरिहत" पयाय का स्वरूप प्रस्तुत करता है। अत 'प्रणत" शब्द "नमो
अरिहताण" नत्र से गर्भित है। २ वर्तमान ने य परमात्मा सिद्ध स्वरूप है" और "अमर" पद परमात्मा के
निपाण कल्याण के दाद की धिनिवाला है अत “प्रणत" शब्द "नमो सिखाप" का घेतक है।