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६ भक्तामर स्तोत्र · एक दिव्य दृष्टि Monopoly नही है। सब का समानाधिकार है। "Pay the Price" मूल्य चुकाओ, चीज तुम्हारी ही है। "भक्त" और "अमर" ये दो अद्भुत शब्द रखकर आचार्यश्री ने सम्पूर्ण जैन दर्शन का तारतम्य प्रस्तुत कर दिया है। आगे "सम्यक् प्रणम्य" शब्द रखकर स्तवन और नमन का सामजस्य प्रस्तुत कर स्तोत्र की सफलता का उपाय बताया है। प्रथम नमस्कार कर फिर स्तवन करूँगा। जहॉ नमन होता है वहॉ स्तवन अपने आप ही हो जाता है। बिना नमन का स्तवन अधूरा है। हम स्तवन करते हैं परन्तु नमन नही करते हैं।
नमन द्वारा परमात्मा को दिए गए सम्मान के दान से एक बहुत बडा प्रतिदान मिलता है। यह प्रतिदान याने शाश्वत आत्मा का ज्ञान होता है। स्व-स्वरूप का अनादिकाल से रहा विस्मरण ही अनत दुःख का मूल है, और उसका स्मरण अनत सुख का बीज है। अत नमन का फल अक्षय है। नमन आत्म-निवेदन रूप भक्ति का एक प्रकार है। नमन द्वारा भक्त का परमात्मा के साथ तात्विक सबध स्थापित होता है। भाव और भक्ति से ढली हुई पलको वाला झुका हुआ मस्तक नमन है और सर्व समर्पण का अतिम दाव स्तवन है। इसीलिए आनदघन महायोगी कहते हैं-"कपट रहित थई आतम अरपणा" । कपट छोड़ दो, घमड छोड़ दो, दभ और पाखड भी छोड़ दो। जैसे हो वैसे यथावत् परमात्मा के सन्मुख प्रस्तुत हो जाओ, अर्पित हो जाओ। उनके चरण पकड़ लो। उन्हें कह दो-तेरे सिवा मेरा कोई नही है।
यह है-कपट रहित आतम अरपणा। यही है सच्चा स्तवन। ऐसे स्तवन से बेड़ियाँ टूटती हैं, अनादि काल का "स्व" को आवरण करने वाला मिथ्यादर्शन टूटता है, जनम-जनम के पाप टूटते हैं और वीर्य प्रकट होता है। प्रगटे हुए वीर्य से समस्त विषय-कषायो का नाश होता है। वीर्योल्लास और परिणाम का अभिषेक करने की अमाप क्षमता भक्तामर स्तोत्र मे है। ऐसे सत्व सम्पन्न परिणाम मे सबके श्रेय का स्वाभाविक नाद सुनाई देता है। ऐसा अश्राव्यकोटि का नाद समग्र चित्ततत्र की कार्यक्षमता मे अपूर्वता प्रकट करता है।
अत जिन्होने स्थलकाल के बाह्य स्वरूप की मर्यादाओ का त्याग कर दिया, उन्हें पुन स्थल और काल के लोह पिजर मे परने का निरर्थक प्रयास नही करना चाहिए, क्योंकि जा ससार की भव-प्रपचमूलक मर्यादाओ को पार कर गये, वे सीमाहीन बन गये। सीमाएं जब नि सीम तत्वो मे खो जाती हैं, वहाँ हद का विसर्जन होता है। जहॉ हद का विसर्जन होता ह वहाँ असीम का सर्जन होता है। जहॉ-जहॉ और जब-जब ऐसा होगा, वहाँ-वहा आर तब-तब मानतुगाचार्य का जन्म होगा और वहाँ-वहाँ भक्तामर स्तोत्र का सर्जन होगा आर वहाँ लोहे की बेड़ियाँ टूटेंगी।
इस प्रकार भक्तामर स्तोत्र भक्ति के प्रत्येक क्षण मे प्रत्येक भक्त को सदा सर्वदा स्वतत्र मूल्याकन देता है। चाहे वह कोई भी स्थल हो, चाहे वह कोई भी काल हो।
यह बात निश्चित है कि भक्तामर स्तोत्र का परमार्थ अत्यन्त भेदपूर्ण, सर्वथा गुप्त और अव्यक्त है। इसके परम को प्रगट करना परमार्थ है। परमार्थ मिलने पर इसके चितन,