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२ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि "भक्तामर" यह एक ऐसा शब्द है जिसमे हम परमात्मा के साथ हैं या ऐसा कहें कि परमात्मा हमारे साथ है।
भक्त याने भक्त-आत्मा। "अमर" शब्द का अर्थ देव होता है और दूसरा अर्थ होता है मोक्ष, तीसरा अर्थ होता है जो अमर स्थान को प्राप्त कर चुके, वे परमात्मा-सिद्ध।
कुमार थावच्चा की जिज्ञासा "अमर" शब्द को अधिक स्पष्ट करती है।
पड़ौस मे सुबह जन्मे बच्चे का जन्म महोत्सव सुनकर थावच्चा कुमार अपनी माता से प्रश्न पूछता है क्या मेरे जन्म के अवसर पर भी इसी प्रकार महोत्सव मनाया गया था? माता के द्वारा अपने जन्मोत्सव पर त्रिखडाधिपति कृष्ण के आने की और इससे भी बढ़कर सम्पूर्ण द्वारिका मे जन्मोत्सव मनाने की बाते सुनकर उन्ही विचारो मे दिन व्यतीत करने वाला थावच्चा ढलती शाम मे कुछ और ही दृश्य देख रहा है और वह था सुबह जन्मे उस बच्चे की मृत्यु का। इस दृश्य ने कई नये प्रश्न उभारे।
मॉ । क्रन्दन क्यो? बेटा | मृत्यु के कारण। मॉ । मृत्यु क्या है? बेटा। सयोग का वियोग मे परिवर्तन। मॉ । लेकिन यह क्यो?
वत्स । यह तो निसर्ग का नियम है, सनातन सत्य है। जिसका जन्म उसकी मृत्यु अवश्य है।
हजारो वर्ष पहले की एक माता अपने प्यारे पुत्र को इन प्रश्नो का उत्तर देती हुई अध्यात्म गर्भित पूरा दर्शनशास्त्र पढ़ा रही है।
थावच्चा ने कहा-लेकिन माँ। जन्मोत्सव तो अच्छा लगता है। परन्तु यह मृत्युजनित रुदन कितना दुखमय है तो क्या मै भी मरूगा और यदि मै मरा तो क्या आप सब ऐसे ही रोओगे? मा इसका कोई उत्तर न दे पाई।
उत्सुक थावच्चा कुमार परमात्मा नेमिनाथ के समवसरण मे गये वहाँ जाकर कहते हैं-'परमात्मा । क्या ऐसा कोई उपाय है कि मृत्यु न हो?'
परमात्मा ने कहा-"हा है, यदि जन्म न हो।" चरम शरीरी ने पुन पूछा-"भन्ते। यह अवस्था कैसे सम्पादित की जाती है।" "वत्स! नये कर्मबन्ध को रोक कर और पुराने कर्म बन्धन से मुक्त होकर।" "भगवान्! यह अवस्था कैसी होती है?" देवानुप्रिय। सर्व कर्म-रहित "अमर" अवस्था है यह।
"अमर" याने वह स्थान जहॉ जाने पर मत्य नही होती अथवा "अमर" याने वह जा अब कभी भी मरनेवाला नही है, क्योकि मरता वह है जिसका जन्म होता है। जा