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(अहम्)
॥ १. भक्तामर स्तोत्र का परिचय |
भक्तामर स्तोत्र एक अपूर्व भक्तिस्तोत्र है। भक्ति एक त्रिमुखी प्रक्रिया है, जिसके तीन केन्द्रविन्दु है -१ भक्त २ परमात्मा और ३ भक्ति। भक्त आत्मा और परमात्मा के वीच सम्बन्ध जोड़नेवाला प्रशस्त भाव भक्ति है। परमात्मा जैसे भाव "स्व" मे प्रकट करना परमार्थ भक्ति है।
स्तोत्र मे शब्द के द्वारा सवध को जोड़ा जाता है। सम्बन्ध के द्वारा "स्व" ओर "स्वीय" को प्रकट किया जाता है। इस प्रकार शब्द-दर्शन के द्वारा सबध-दर्शन और सवध-दर्शन के द्वारा स्वरूप-दर्शन की शृखला (Process Theory) बनती है।
भक्ति का मार्ग सिखाया नही जाता, उत्पन्न होता है। भक्ति से आनन्द की उत्पत्ति होती हे ओर आनन्द से कर्म की निवृत्ति होती है। अत भक्ति के द्वारा स्वतन्त्र सत्ता से अभेद होने पर "स्व-चेतना" का विकास होता है। इस प्रकार भक्ति की यह एक सरल व्याख्या है कि "जो सहज है, परम है, उसका अनुभव करना भक्ति है।"
क्रिया और भक्ति में बहुत बड़ा अन्तर है। क्रिया फल से वाघ देती है और भक्ति परम-स्वरूप से मिला देती है। इस प्रकार भक्ति परम-मिलन का महामन्त्र है। रागद्वेष से मुक्त कर वीतरागी बनानेवाला परम मन्त्र है। परमात्मा की सर्वोच्च भावनाओ की स्वीकृति का महातत्र है और "स्व" को "स्व" में विलीन करने वाला योजनामय यत्र है।
इस प्रकार भक्ति परमात्मा के प्रति प्रेम का अखण्ड स्रोत है। लेकिन यहा कोरा भावनात्मक प्रेम (Senumental attachment) सफल नही हो सकता है, यहाँ तो चाहिए वैज्ञानिक प्रेम (Scienufic attachment)। __ अब हम देखेगे-भक्ति भावो से ओत-प्रोत अपूर्व भक्तामर स्तोत्र का महत्व, विशिष्टता, सम्बन्ध, परिभाषा और सफलता।
ऐसे देखा जाए तो "भक्तामर स्तोत्र" शब्द स्वय ही परिचय का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। उसका परिचय करने की अपेक्षा उससे परिचित हो जाना ही जीवन का साधनामय प्रथम एव अंतिम अध्याय है।
"भक्तामर" यह कितना प्रिय शब्द है। हमारे साथ कई वार सासारिक रिश्तो, सवधो के शब्द-नाम जुड़ते आये हैं, पर कभी हमारे साथ परमात्म शब्द सयुक्त हुआ देखा क्या?