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[१४] कर सकते हैं।
पुस्तक में देव, नारकी, मनुष्य और तिर्य'च, चार गतियों का कई स्थान पर उल्लेख है।
____ लोकाकाश ६ द्रव्यों से परिपूर्ण है १ जीव, २ पुद्गल, ३ धर्म, ४ अधर्म, ५ आकाश, ६ काल । लोकाकाश के ऊपर अलोकाकाश है, आदि के ५ द्रव्य जिनको अस्तिकाय भी बोलते हैं, उनकी सत्ता लम्बाई, चौड़ाई, विस्तार आदि के परिमाण से है, काल एक प्रदेशी है, द्रव्य का लक्षण सत है अर्थात् छहों द्रव्य सत्ता रूप से विद्यमान हैं।
जीव शब्द संसारी जीव ओर मुक्त जीव दोनों के लिए प्रयुक्त होता है। सामान्यतया इसका व्यवहार कर्मयुक्त आत्मा से होता है। संसारी जीव ६ कार्यों में विभक्त है:-१ पृथ्वी, २ जल, ३ वायु, ४ अग्नि (ये ४ भूत तत्व) और ५ वनस्पति ये स्थावर कहलाते हैं और छटे त्रस जीव जिनमें मनुष्य, द्वीन्द्रियादिक कीड़े, मकोड़े, पशु, देव, और नार की।
इससे पता चलता है कि जैन धर्म के अनुसार पृथ्वी पर कोई भी पुद्गल बिना जीव के सम्बन्ध के नहीं है, किन्तु मृत पशु, कटा हुआ वृक्ष. गरम वायु या जल, बुझी हुई अग्नि, खदान से निकला हुआ पत्थर आदि निर्जीव पुद्गल है। कुछ विद्वान् जीवन सम्बन्धी इन विचारों में जैन धर्म के. (animistic) होने की एक झलक पाते हैं। जो भी हो, जैन धर्म में अंध विश्वास अथवा लोक मृढ़ता को स्थान नहीं है और सारा सिद्धान्त (क दार्शनिक कसौटी पर कसा हुआ है। जो लोग जैन धर्म को एक fantastic (बेहूदा) धम मानते हैं उनको इस बात पर विचारना चाहिए कि विज्ञान के अनुसार पृथ्वी एक अग्नि का गोला थी जिससे अन्य पदार्थों की उत्पत्ति हुई, यदि जीव उसमें किसी भी रूप में सन्निहित नहीं था तो आया कहाँ से ? ... धर्म, अधर्म, आकाश और काल चारों उदासीन द्रव्य हैं । उनसे प्रकृति में phenomena अर्थात् परिणमन होता है। ये द्रव्य इस परिणमन के सहायक नहीं केवल निमित्त कारण हैं । धर्म और अधर्म का विचार जैनधर्म का अपना ही है। अब पुस्तक के कुछ पारिभाषिक शब्दों पर विचार किया जावेगा:
जीव शब्द का वर्णन पहले कया जा चुका है। आत्मन् शब्द का अभिप्राय शुद्ध श्रात्मा से है । जहाँ तक क्रियात्मक संसार का सम्बन्ध है, आत्मा अशुद्ध अवस्था में ही पाई जाती है और उसका पृथक्करण विचार मात्र है, आत्मा के ३ भेद हैं:१ बहिरात्मा-- प्रर्थात् जिसकी शरीरादिक पुद्गल पर्यायों में आत्मबुद्धि हो। २ अन्तरात्मा-प्रर्थात् जो अपनी आत्मा को शरीरादिक पुद्गल की पर्यायों से