Book Title: Ashtpahud
Author(s): Parasdas Jain
Publisher: Bharatvarshiya Anathrakshak Jain Society

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Page 132
________________ [१०४] छाया-दुष्टाष्टकर्मरहितं अनुपमं ज्ञानविग्रहं नित्यम् । शुद्धं जिनैः कथितं आत्मा भवति स्वद्रव्यम् ॥१८॥ अर्थ-जो दुखदाई आठों कर्मों से रहित है, उपमारहित है, ज्ञानरूप शरीरवाला है, अविनाशी और शुद्ध है, ऐसा आत्मा जिन भगवान् के द्वारा स्वद्रव्य कहा गया है ॥१८॥ गाथा-जे झायंति सदव्वं परदव्वपरंमुहा हु सुचरित्ता। ते जिणवराण मग्गे अणुलग्गा लहदि णिव्वाणं ॥१६॥ छाया-ये ध्यायन्ति स्वद्रव्यं परद्रव्यपराङ्मुखास्तु सुचरित्राः। .. ते जिनवराणां मार्गे अनुलग्ना लभन्ते निर्वाणम् ॥१६॥ अर्थ-जो मुनि पर पदार्थों का त्यागकर आत्मा का ध्यान करते हैं वे निर्मल चारित्र वाले होते हैं और जिनेश्वरों के मार्ग में लगकर मोक्ष प्राप्त करते हैं ॥१॥ गाथा-जिणवरमयेण जोई झाणे झाएह सुद्धमप्पाणं । ... जेण लहइ णिव्वाणं ण लहइ किं तेण सुरलोयं ॥२०॥ छाया-जिनवरमतेन योगी ध्याने ध्यायति शुद्धमात्मानम् । - येन लभते निर्वाणं न लभते किं तेन सुरलोकम् ॥२०॥ अर्थ-जिन भगवान के मत से योगी शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है जिससे मोक्ष पाता है। उस आत्मध्यान से क्या स्वर्गलोक प्राप्त नहीं करता है अर्थात् अवश्य प्राप्त करता है ॥२०॥ गाथा-जो जाइ जोयणसयं दियहेणेक्केण लेइ गुरूभारं। सो किं कोसद्धं पि हु ण सक्कए जाहुभुवणयले ॥२।। छाया-यः याति योजनशतं दिवसेनैकेन लात्वा गुरुभारं। स किं क्रोशार्द्धमपि स्फुटं न शक्नोति यातुं भुवनतले ॥२१॥ . अर्थ-जो पुरुष भारी बोझ लेकर एक दिन में सौ योजन जाता है वह क्या भूमि पर आधा कोस भी नहीं चल सकता अर्थात् सरलता से चल सकता है ॥ २१॥ . .. . .

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