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[ १०७] छाया-यत् मया दृश्यते रूपं तत् न जानाति सर्वथा ।
___ ज्ञायकं दृश्यते न तत् तस्मात् जल्पामि केन अहम् ॥ २६ ॥ अर्थ-जिस मूर्तिक शरीरादि को मैं देखता हूं वह अचेतन होने के कारण निश्चय
से कुछ भी नहीं जानता । तथा जो मैं ज्ञायक और अमूर्तिक हूं सो दिखाई नहीं देता, इसलिये मैं किससे बोलूं । अतः मौन रहना ही उचित है ।।२६।।
गाथा-सव्वास्वणिरोहेण कम्म खवइ संचियं ।
जोयत्थो जाणए जोई जिणदेवेण भासियं ॥३०॥ छाया-सर्वास्रवनिरोधेन कर्म क्षपयति संचितम् ।
योगस्थः जानाति योगी जिनदेवेन भाषितम् ॥ ३०॥ अर्थ-ध्यान में स्थित योगी सब कर्मों के प्रास्रव को रोककर पहले बँधे हुए कर्मों
का नाश करता है और फिर केवल ज्ञान से सब पदार्थों को जानता है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है ॥ ३०॥
गाथा-जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकजम्मि ।
जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे ।। ३१ ॥ छाया-यः सुप्तः व्यवहारे सः योगी जागर्ति स्वकार्ये ।
यः जागर्ति व्यवहारे सः सुप्तः आत्मनः कार्ये ॥ ३१ ॥
अर्थ-जो मुनि व्यवहार के कामों में सोता ( उदासीन ) है, वह अपने आत्मध्यान
के कार्य में जागता (सावधान) है, तथा जो व्यवहार के कामों में जागता ( सावधान ) है वह आत्मस्वरूप के चिन्तवन में सोता ( उदासीन) है अर्थात् अपने स्वरूप को नहीं जानता ॥ ३१ ॥
गाथा-इय जाणिऊण जोई ववहारं चयइ सव्वहा सव्वं ।
झायइ परमप्पाणं जह भणियं जिणवरिंदेहिं ।। ३२॥ छाया-इति ज्ञात्वा योगी व्यवहारं त्यजति सर्वथा सर्वम् ।।
ध्यायति परमात्मानं यथा भणितं जिनवरेन्द्रैः ॥ ३२ ॥