Book Title: Ashtpahud
Author(s): Parasdas Jain
Publisher: Bharatvarshiya Anathrakshak Jain Society

View full book text
Previous | Next

Page 169
________________ [१४१] अर्थ-जो सब प्रकार से हीन हैं, कुरूप हैं, सुन्दर अवस्था रहित हैं अर्थात् वृद्ध हो गये हैं। ऐसा होने पर भी जिनका शील उत्तम है अर्थात् जो विषयों में आसक्त नहीं हैं उनका मनुष्य जन्म पाना प्रशंसा के योग्य है ॥ १८ ॥ गाथा- जीवदया दम सञ्चं अचोरियं बंभचेरसंतोसे । सम्मईसणणाणे तो य सीलस्स परिवारो॥१६॥ छाया- जीवदया दमः सत्यं अचौर्यं ब्रह्मचर्यसन्तोषौ । सम्यग्दर्शनं ज्ञानं तपश्च शीलस्य परिवारः ॥१६॥ अर्थ-जीवों की दया, इन्द्रियों पर विजय, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, सन्तोष, सम्य ग्दर्शन, ज्ञान और तप ये सब गुण शील के परिवार हैं अर्थात् शील के होने पर ये सब गुण स्वयं ही प्राप्त हो जाते हैं ॥१॥ गाथा- सीलं तवो विसुद्धं दसणसुद्धीय णाणसुद्धीय। सीलं विसयाण अरी सीलं मोक्खस्स सोवाणं ॥२०॥ . छाया- शीलं तपो विशुद्ध दर्शनशुद्धिश्च ज्ञानशुद्धिश्च ।। शीलं विषयाणामरिः शीलं मोक्षस्य सोपानम् ॥२०॥ अर्थ- शील ही निर्मल तप है, शील ही दर्शन की शुद्धता है, शील ही ज्ञान की शुद्धता है, शील ही विषयों का शत्रु है और शील ही मोक्षरूपी महल की सीढ़ी है ॥२०॥ गाथा-जह विसयलुद्ध विसदो तह थावर जंगमाण घोराणं । सव्वेसि पि विणासदि विसयविसं दारुणं होई ॥२१॥ छाया- यथा विषयलुब्धः विषदः तथा स्थावरजंगमान् घोरान् । सर्वानपि विनाशयति विषयविषं दारुणं भवति ॥२१॥ अर्थ-जैसे विषयों के वश में हुआ जीव विषयों के द्वारा स्वयं ही मारा जाता है, वैसे ही त्रस और स्थावर सभी भयानक जीवों को विषय रूप विष नाश कर देता है । इसलिये विषयों का विष अत्यन्त तीव्र होता है ॥२१॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178