Book Title: Ashtpahud
Author(s): Parasdas Jain
Publisher: Bharatvarshiya Anathrakshak Jain Society

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Page 168
________________ [ १४०] गाथा-रुवासरिगव्विदाणं व्वणलावण्णकतिकलिदाणं । सीलगुणवज्जिदाणं णिरत्थयं माणुसं जम्म ॥ १५॥ छाया-रूपश्रीगर्वितानां यौवनलावण्यकान्तिकलितानाम् । ___ शीलगुणवर्जितानां निरर्थकं मानुषं जन्म ॥ १५ ॥ अर्थ-सुन्दरता रूप लक्ष्मी का गर्व करने वाले, युवावस्था की लावण्यता और कान्ति को धारण करने वाले शीलगुणरहित जीवों का मनुष्य जन्म पाना निरर्थक ही है ॥ १५॥ गाथा-वायरण छंदवइसेसियववहारणायसत्थेसु । वेदेऊण सुदेसु य तेसु सुयं उत्तमं सीलं ॥ १६ ॥ : छाया-व्याकरण छन्दोवैशेषिकव्यवहारन्यायशास्त्रेषु । विदित्वा श्रुतेषु च तेषु श्रुतं उत्तमं शीलम् ॥ १६ ॥ अर्थ-व्याकरण, छन्द, वैशेषिक, व्यवहार और न्याय शास्त्रों को तथा जैन शास्त्रों को जान कर भी शील अर्थात् सदाचरण धारण करना ही उत्तम माना गया है ॥१६॥ गाथा-सीलगुणमंडिदाणं देवा भवियाण वल्लहा होति । ___ सुदपारयपउराणं दुस्सीला अप्पिला लोए ॥ १७ ॥ छाया-शीलगुणमण्डितानां देवा भव्यानां वल्लभा भवन्ति । .. . श्रुतपारगप्रचुराणं दुःशीला अल्पकाः लोके ॥ १७ ॥ अर्थ-शीलरूप गुण से सुशोभित भव्य जीवों को देव भी चाहते हैं, क्योंकि सम्पूर्ण श्रुतज्ञान के जानने वाले बहुत से पुरुषों में शील रहित पुरुष बहुत थोड़े हैं ॥ १७ ॥ गाथा-सवे विय परिहीणा रूवविरुवा वि वदिदसुवयावि। सीलं जेसु सुसीलं सुजीविदं माणुसं तेसिं ॥ १८ ॥ छाया-सर्वैरपि परिहीनाः रूपविरूपा अपि पतितसुवयसो ऽपि । शीलं येषु सुशीलं सुजीवितं मानुष्यं तेषाम् ॥ १८॥ .

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