Book Title: Ashtpahud
Author(s): Parasdas Jain
Publisher: Bharatvarshiya Anathrakshak Jain Society

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Page 171
________________ [१४३] अर्थ-मनुष्य के शरीर में गोल, खण्डरूप (अर्द्धगोल ) सरल और विशाल अंग प्राप्त होने पर भी सब अंगों में शील ही उत्तम अंग माना गया है, अर्थात् सुन्दर अंग बाला मनुष्य भी शील के बिना शोभा नहीं पाता है ॥२५॥ गाथा-पुरिसेण वि सहियाए कुसमयमूढेहि विसयलोलेहिं । संसारे भमिदव्वं अरयंघरदं व भूदेहिं ॥२६॥ छाया--पुरूषणापि सहितेन कुसमयमूरैः विषयलोलैः। संसारे भ्रमितव्यं अरहटघरहं इव भूतैः ।। २६ ॥ अर्थ-मिथ्याधर्म के श्रद्धान से अज्ञानी और विषयों में आसक्त पुरुष रहट की घड़ी के समान संसार में घूमते हैं तथा उनके साथ रहने वाला. दूसरा पुरुष भी अवश्य संसार में घूमता है ॥२६॥ गाथा-आदे हि कम्मगंठी जा बद्धा विसयरागमोहेहिं । तं छिन्दन्ति कयत्था तवसंजमसीलयगुणेण ।। २७ ॥ छाया- आत्मनि हि कर्मग्रन्थिः या बद्धा विषयरागमोहैः। तां छिन्दन्ति कृतार्थाः तपः संयमशीलगुणेन ॥२७॥ अर्थ-जो कर्मों की गांठ विषयों की आसक्तता और मोहभाव के कारण आत्मा में बंधी है उसको चतुर पुरुष तप, संयम और शील आदि गुणों से अर्थात भेद ज्ञान के द्वारा काट देते हैं ॥ २७ ॥ गाथा- उदधीव रदणभरिदो तवविणयं सीलदाणरयणाणं । सोहेतो य ससीलो णिव्वाणमणुत्तरं पत्तो ॥२८॥ छाया- उदधिरिव रत्नभृतः तपोविनयशीलदानरत्नानाम् । शोभते च सशीलः निर्वाणमनुत्तरं प्राप्तः ॥ २८ ॥ अर्थ-जैसे रत्नों से भरा हुआ समुद्र जल से ही शोभा पाता है वैसे ही आत्मा तप, विनय, शील, दान आदि गुणरूपी रत्नों में शीलसहित ही शोभा पाता है॥२८॥

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