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[ १४५] छाया- यः विषयविरकः सः गमयति नरकवेदनाः प्रचुराः।
तत् लभते अर्हत्पदं भणितं जिनवर्धमानेन ॥ ३२ ॥ अर्थ-जो जीव विषयों से विरक्त है वह बहुत अधिक नरक की पीड़ाओं को कम
कर देता है । तथा वहां से निकल कर अर्हन्त पद को पाता है, ऐसा श्रीवर्धमान स्वामी ने कहा है ॥ ३२ ॥
गाथा- एवं बहुप्पयारं जिणेहिं पञ्चक्खणाणदरसीहिं ।
सीलेण य मोक्खपयं अक्खातीदं य लोयणाणेहिं ।। ३३ ।। छाया- एवं बहुप्रकारं जिनैः प्रत्यक्षज्ञानदर्शिभिः।
शीलेन च मोक्षपदं अक्षातीतं च लोकज्ञानैः ॥ ३३॥ अर्थ- इस प्रकार केवल ज्ञान से लोक के समस्त पदार्थों को देखने वाले और
जानने वाले जिनेन्द्र भगवान ने शील के द्वारा प्राप्त होने वाले अतीन्द्रिय सुखरूप मोक्षस्थान का बहुत प्रकार से वर्णन किया है ॥ ३३ ॥
गाथा- सम्मत्तणाणदसणतववीरियपंचयार मप्पाणं !
जलणो बि पवणसहिदो डहंति पोरायणं कम्मं ॥ ३४ ।। छाया- सम्यक्त्वज्ञानदर्शनतपोवीर्यपंचाचारा आत्मनाम् ।
ज्वलनोऽपि पवनसहितः दहन्ति पुरातनं कर्म ॥ ३४ ॥ अर्थ- सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, तप और वीर्य ये पाँच आचार आत्मा के आश्रय से
पूर्व बंधे हुए कर्म को जला देते हैं। जैसे आग हवा की सहायता से पुराने ईंधन को जला देती है ॥ ३४ ॥
गाथा-णिद्दढ्ढअट्टकम्मा विसयविरत्ता जिदिदिया धीरा।
तवविणयसीलसहिदा सिद्धा सिद्धिं गदि पत्ता ॥३५॥ छाया-निर्दग्धाष्टकर्मामः विषयविरक्ता जितेन्द्रिया धीराः।
तपोविनयशीलसहिताः सिद्धाः सिद्धिं गतिं प्राप्ताः ॥ ३५।। अर्थ-जिन जीवों ने इन्द्रियों को जीत लिया है, जो विषयों से विरक्त हैं, धैर्यवान
हैं, तप, विनय और शीलसहित हैं और मोक्ष को प्राप्त हो गये हैं वे सिद्ध कहे जाते हैं ॥३५॥