Book Title: Ashtpahud
Author(s): Parasdas Jain
Publisher: Bharatvarshiya Anathrakshak Jain Society

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Page 166
________________ [ १३८ ] अर्थ-विषयों में मोहित कुछ अज्ञानी पुरुष ज्ञान को जान कर भी विषयरूप भावों में आसक्त हुए चतुर्गतिरूप संसार में भ्रमण करते हैं ॥७॥ गाथा-जे पुण विसयविरक्ता णाणं णाऊणभावणासहिदा। छिन्दंति चादुरगदि तवगुणजुत्ता ण संदेहो ॥८॥ छाया-ये पुनः विषयविरक्ताः ज्ञानं ज्ञात्वाभावनासहिताः। छिन्दन्ति चातुर्गतिं तपोगुणयुक्ताः न सन्देहः ॥८॥ अर्थ- विषयों से विरक्त हुए जो मुनि ज्ञान का स्वरूप जान कर निरन्तर उसकी भावना करते हैं, वे तप और मूलगुण तथा उत्तरगुण सहित होकर चतुर्गतिरूप संसार का नाश करते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है। गाथा-जह कंचणं विसुद्ध धम्मइयं खडियलवणलेवेण। तह जीवो वि विसुद्ध णाणविसलिलेण विमलेण ॥६॥ छाया-यथा कांचन विशुद्धं धमत् खटिकालवणलेपेन ।। तथा जीवोऽपि विशुद्धं ज्ञानविसलिलेन विमलेन ॥६॥ अर्थ-जैसे सोना खडिया (सुहागा) और नमक के लेप से निर्मल और कान्तिवाला हो जाता है, वैसे ही यह जीव भी निर्मल ज्ञानरूपी जल के द्वारा पवित्र हो जाता है ॥६॥ गाथा- णाणस्स णत्थि दोसो कप्पुरिसाणो विमंदबुद्धीणो। जे णाणगव्विदा होऊणं विसएसु रजंति ॥ १० ॥ छाया- ज्ञानस्य नास्ति दोषः कापुरुषस्यापि मन्दबुद्धेः । ये ज्ञानगर्विताः भूत्वा विषयेषु रजन्ति ॥ १०॥ अर्थ- ज्ञान का घमण्ड करने वाले जो पुरुष विषयों में आसक्त होते हैं, वह ज्ञान का दोष नहीं है, किन्तु मन्दबुद्धि वाले खोटे मनुष्य ही का दोष है ॥१०॥ गाथा-णणेण दसणेण य तवेण चरिएण सम्मसहियेण। ' होहदि परिणिव्वाणं जीवाण चरित्तसुद्धाणं ॥ ११ ।।

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