Book Title: Ashtpahud
Author(s): Parasdas Jain
Publisher: Bharatvarshiya Anathrakshak Jain Society

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Page 165
________________ [ १३७ ] गाथा - ताव ण जाणदि गाणं विसयबलो जाव वहए जीवो । विस विरत्तमेत्तो खवेइ पुराइयं कम्मं ॥ ४ ॥ छाया - तावत् न जानाति ज्ञानं विषयबलः यावत् वर्तते जीवः । विषये विरक्तमात्रः न क्षिपते पुरातनं कर्म ॥ ४ ॥ अर्थ- जब तक जीव विषयों के वश में रहता है तब तक ज्ञान को नहीं जानता है, तथा ज्ञान को बिना जाने केवल विषयों का स्याग करने से पहले बांधे हुए कर्मों का नाश नहीं करता है | गाथा - गाणं चरितहीणं लिंगग्गहणं च दंसणविहीणं । संजमहीरणो य तवो जइ चरइ गिरत्थयं सव्वं ॥ ५ ॥ छाया - ज्ञानं चारित्रहीनं लिंगग्रहणं च दर्शन विहीनम् । संयमहीनं च तपः यदि चरति निरर्थकं सर्वम् ॥ ५ ॥ अर्थ — यदि कोई चारित्र रहित ज्ञान धारण करता है, दर्शनरहित मुनि का वेष धारण करता है और संयमरहित तपश्चरण करता है, तो यह सब कार्य निष्फल ही है ॥ ५ ॥ गाथा - गाणं चरित्तसुद्ध लिंगग्गाहरणं च दंसणविसुद्ध । संजमसहिदो य तो थोत्रो वि महाफलो होई ॥ ६ ॥ छाया - ज्ञानं चारित्रशुद्ध लिंगग्रहणं च दर्शनविशुद्धम् । संयमसहितं च तपः स्तोकमपि महाफलं भवति ॥ ६ ॥ अर्थ — चारित्र से पवित्र ज्ञान, दर्शन से पवित्र मुनिवेष का ग्रहण और संयम सहित तपश्चरण यदि थोड़ा भी आचरण किया जाय तो बहुत अधिक फल प्राप्त होता है ॥ ६ ॥ गाथा -- गाणं गाऊंरण खरा केई विसयाइभावसंसत्ता । हिँडंति चादुरगदिं विसएसु बिमोहिया मूढा ॥ ७ ॥ छाया - ज्ञानं ज्ञात्वा नराः केचित् विषयादिभावसंसक्ताः । हिडन्ते चातुर्गतिं विषयेषु विमोहिता मूढाः ॥ ७॥

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