Book Title: Ashtpahud
Author(s): Parasdas Jain
Publisher: Bharatvarshiya Anathrakshak Jain Society

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Page 163
________________ [ १३५] गाथा - पुंच्छलिघरि जो भुंजइ णिचं संथुणदि पोसए पिंडं। . 'पावदि बालसहावं भावविणट्ठो ण सो समणो ॥२१॥ छाया- पुंश्चलीगृहे यः भुंक्ते नित्यं संस्तौति पुष्णाति पिण्डम् । प्राप्नोति बालस्वभावं भावविनष्टः न सः श्रमणः ॥ २१ ॥ अर्थ-जो लिंगधारी व्यभिचारिणी स्त्री के घर भोजन करता है, सदा उसकी • बड़ाई करता है तथा शरीर को पुष्ट करता है, वह अज्ञानी है और शुद्ध भावों से रहित है इस लिये मुनि नहीं है ॥२१॥ गाथा- इय लिंगपाहुडमिणं सव्वं बुद्धेहिं देसियं धम्म । पालेइ कट्ठसहियं सो गाहदि उत्तमं ठाणं ॥ २२ ॥ छाया- इति लिंगप्राभृतमिदं सर्व बुद्धैः देशितं धर्मम्। पालयति कष्टसहितं सः गाहते उत्तमं स्थानम् ।। अथ- इस प्रकार यह लिंगप्राभृत शास्त्र ज्ञानी गणधरादि के द्वारा उपदेश किया गया है । उस मुनि धर्म को जो बड़े यत्न से पालता है वह उत्तम स्थान अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करता है ॥ २२ ॥

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