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छाया - गृह्णाति श्रदत्तदानं परनिन्दामपि च परोक्षदूषणैः । जिनलिंगं धारंतो चोरेणव भवति सः श्रमणः ।। १४ ।।
अर्थ- जो मुनि बिना दिया हुआ दान लेता है और पीठ पीछे दोष लगा कर दूसरों की निन्दा करता है, वह जिनलिंग को धारण करता हुआ भी चोर के समान है ॥ १४ ॥
गाथा — उप्पडदि पडदि धावदि पुढवीओ खादि लिंगरूवेण । star धारं तिरिक्खजोगी र सो समणो || १५
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छाया - उत्पतति पतति धावति पृथिवीं खनति लिंगरूपेण । ईर्यापथं धारयन् तिर्यग्योनिः न सः श्रमणः ॥ १५ ॥
अर्थ — जो मुनि जिनलिंग से ईर्यासमिति धारण कर चलता हुआ उछलता है, गिरता है, दौड़ता है और भूमि को खोदता है वह तिर्यंचयोनि है अर्थात् पशु के समान ज्ञानी है, मुनि नहीं है ॥ १५ ॥
गाथा - बंधो रिओ संतो सस्सं खंडेदि तह य वसुहं पि ।
छिदि तरुगण बहुसो तिरिक्खजोगी रण सो समणो ॥ १६ ॥
छाया - बन्धं नीरजाः सन् सस्यं खण्डयति तथा च. वसुधामपि । छिनत्ति तरुगणं बहुशः तिर्यग्योनिः न सः श्रमणः ॥ १६ ॥
अर्थ — जो मुनि हिंसा से होने वाले कर्मबन्ध को निर्दोष समझता हुआ धान्य नष्ट करता है, भूमि को खोदता है और अनेक बार वृक्षों को काटता है, वह तिर्ययोनि है अर्थात् पशु के समान अज्ञानी है, मुनि नहीं है ॥ १६ ॥
गाथा - रागे करेदि णिच्चं महिलावग्गं परं च दूसेइ ।
साविहरणो तिरिक्खजोगी ग सो समणो ॥ १७ ॥
छाया - रागं करोति नित्यं महिलावर्गं परं च दूषयति । दर्शनज्ञानविहीनः तिर्यग्योनि न सः श्रमणः ॥ १७ ॥