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[ १०६] बहुत भेद होता है, वैसे ही व्रत और अव्रत पालने वालों में बहुत भेद है॥ २५॥
गाथा-जो इच्छइ णिस्सरिहुँ संसारमहएणवाउ रुद्दाओ।
कम्मिंधणाण डहणं सो झायइ अप्पयं सुद्धं ॥ २६ ॥ छाया-यः इच्छति निःसर्तु संसारमहार्णवात् रुद्रात् ।
कर्मेन्धनानां दहनं सः ध्यायति आत्मानं शुद्धम् ।। २६ ।। अर्थ-जो मुनि बहुत बड़े संसाररूपी समुद्र से पार होना चाहता है वह कर्मरूपी
इन्धन को जलाने वाले आत्मा का ध्यान करता है ॥२६॥
गाथा-सव्वे कसायमुत्तं गारवमयरायदोसवामोहं ।
लोयववहारविरदो अप्पा झाएह झाणत्थो ॥ २७ ॥ छाया-सर्वान् कषायान् मुक्त्वा गारवमदरागदोषव्यामोहम् ।
लोकव्यवहारविरतः श्रात्मानं ध्यायति ध्यानस्थः ।। २७ ।। अर्थ-ध्यान में स्थित मुनि सब कषायों को तथा गौरव, मद, राग, द्वेष, मोह
आदि परिणामों को छोड़कर लोक व्यवहार से विरक्त होता हुआ आत्मा का चिन्तवन करता है ॥२७॥
गाथा-मिच्छत्तं अण्णाणं पावं पुण्णं चएवि तिविहेण ।
___ मोणव्वएण जोई जोयत्थो जोयए अप्पा ॥ २८ ॥ छाया-मिथ्यात्वं अज्ञानं पापं पुण्यं त्यक्त्वा त्रिविधेन ।
मौनव्रतेन योगी योगस्थः द्योतयति आत्मानम् ॥ २६ ॥ अर्थ-ध्यानी मुनि मिथ्यात्व, अज्ञान, पाप, पुण्य आदि को मन, वचन, काय से
छोड़कर मौनव्रत से ध्यान में बैठा हुआ आत्मा का चिन्तवन करता है ॥२८॥
गाथा-जं मया दिस्सदे रूवं ते ण जाणादि सव्वहा ।
. जाणगं दिस्सदे णं तं तम्हा जंपेमि केण हं ।। २६ ।।