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_ [ १२३ ] अर्थ-इस प्रकार जिनेन्द्रदेव ने मुनियों के ध्यान का कथन किया, अब श्रावकों का
ध्यान कहते हैं, सो सुनो। वह उपदेश संसार का नाश करने वाला और मोक्ष का उत्कृष्ट कारण है।। ८५॥
गाथा-गहिऊण य सम्मत्तं सुणिम्मलं सुरगिरीव णिक्कंपं ।
___ तं झाणे झाइज्जइ सावय ! दुक्खक्खयट्टाए ॥८६॥ छाया-गृहीत्वा च सम्यक्त्वं सुनिर्मलं सुरगिरिरिव निष्कम्पम् ।
तत् भ्याने ध्यायते श्रावक ! दुःखक्षयार्थे ।। ८६॥ अर्थ हे श्रावक । अतीचाररहित और मेरु पर्वत के समान स्थिर अर्थात् चल,
मलिन, अगाढ़ दोष रहित सम्यग्दर्शन को धारण करके कर्मों का नाश करने के लिये उसका ध्यान करना चाहिये ॥८६॥
गाथा-सम्मत्तं जो झायइ सम्माइट्टी हवेइ सो जीवो।
सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ दुट्ठकम्माणि ॥८७ ॥ छाया-सम्यक्त्वं यः ध्यायति सम्यग्दृष्टिः भवति सः जीवः ।
सम्यक्त्वपरिणतः पुनः क्षपयति दुष्टाष्टकर्माणि ॥७॥
अर्थ-जो श्रावक सम्यग्दर्शन का चिन्तवन करता है वह जीव सम्यग्दृष्टि है । तथा
सम्यक्त्व परिणाम वाला जीव दुष्ट आठों कर्मों का नाश करता है ।।८७ ।।
गाथा-किं बहुणा भणिएण जे सिद्धा णरवरा गए काले।
सिज्झिहहि जेवि भविया तं माणइ सम्ममाहप्पं ॥ ८ ॥
छाया-किं बहुना भणितेन ये सिद्धा नरवरा गते काले ।
सेत्स्यन्ति ये ऽपि भन्या तज्ञानीत सम्यक्त्वमाहात्म्यम् ॥ ८ ॥ अर्थ-आचार्य कहते हैं कि बहुत कहने से क्या लाभ है, जो उत्तम मनुष्य भूतकाल
में सिद्ध हुए हैं और जो भव्य जीव भविष्यत् काल में सिद्ध होंगे, वह सब सम्यग्दर्शन की महिमा जानो ॥८॥