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[१२६] छाया-सम्यक्त्वं गुणः मिथ्यात्वं दोषः मनसा परिभाव्य तत् कुरु।
यत् ते मनसे रोचते किं बहुना प्रलपितेन तु ।। ६६ ॥ अर्थ-आचार्य कहते हैं कि हे भव्य ! सम्यक्त्व गुण रूप है और मिथ्यात्व
दोष रूप है। यह वात मन से अच्छी तरह विचारकर जो तेरे मन को अच्छा लगे वही कार्य कर, बहुत कहने से क्या लाभ है अर्थात् कुछ भी नहीं॥६६॥
गाथा-बाहिरसंगविमुक्को णवि मुक्को मिच्छभाव णिग्गंथो ।
किं तस्स ठाणमउणं णवि जाणदि अप्पसमभावं ॥१७॥ छाया-बहिः संगविमुक्तः नापि मुक्तः मिथ्याभावेन निर्ग्रन्थः ।
किं तस्य स्थानमौनं नापि जानाति आत्मसमभावम् ॥१७॥ अर्थ-जो दिगम्बर वेषधारी जीव बाह्य परिग्रह रहित है और मिथ्यात्व परिणाम
का त्यागी नहीं है, उसके कायोत्सर्गादि आसन और मौन धारण करने से क्या लाभ है। तथा वह सब जीवों के समानतारूप परिणाम को नहीं जानता है ।।१७॥
गाथा-मूलगुणं छित्तूण य बाहिरकम्मं करेइ जो साहू ।
सो ण लहइ सिद्धिसुहं जिणलिंगविराहगोणिचं ॥ १८ ॥ छाया-मूलगुणं छित्वा च बाह्यकर्म करोति यः साधुः ।
स न लभते सिद्धिसुखं जिनलिंगविराधकः नित्यम् ॥१८॥ अर्थ-जो निम्रन्थ मुनि अठाईस मूलगुणों को विगाड़कर कायोत्सर्गादि बाह्य क्रिया
करता है वह मोक्ष सुख नहीं पाता है, क्योंकि वह सदा जिनलिंग को दोष लगाता है ।।६॥
गाथा-किं काहिदि बहिकमं किं काहिदि बहुविहं च खवणं तु ।
किं काहिदि आदावं श्रादसहावस्सविवरीदो ॥६॥ छाया-किं करिष्यति बहिः कर्म किं करिष्यति बहुविधं च क्षमणं तु।
किं करिष्यति आतापः आत्मस्वभावात् विपरीतः ॥६६॥