Book Title: Ashtpahud
Author(s): Parasdas Jain
Publisher: Bharatvarshiya Anathrakshak Jain Society

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Page 150
________________ [ १२२ ] • देवगुरूणं भत्ता णिव्वेयपरंपरा विचिंतिंता । भाणरया सुचरिता ते गहिया मोक्खमग्गम्मि ॥ ८२ ॥ गाथा छाया - देवगुरूणां भक्ताः निर्वेदपरम्परा विचिन्तयन्तः । ध्यानरताः सुचरित्राः ते गृहीता मोक्षमार्गे ॥ ८२ ॥ अर्थ- जो देव और गुरू के भक्त हैं, वैराग्य भावना का विचार करते रहते हैं, ध्यान में लीन रहते हैं और उत्तम चारित्र पालते हैं, वे मुनि मोक्षमार्ग में ग्रहण किये गये हैं ॥ ८२ ॥ गाथा — णिच्छयणयस्स एवं अप्पा अप्पम्मि अप्पणे सुरदो । सो होदि हु सुचरित्तो जोई सो लहई गिव्वाणं ॥ ८३ ॥ छाया - निश्चयनयस्य एवं आत्मा आत्मनि आत्मने सुरतः । स भवति स्फुटं सुचरित्रः योगी सः लभते निर्वाणम् ॥ ८६ ॥ अर्थ - निश्चयन का ऐसा अभिप्राय है कि जो आत्मा आत्मा के लिये आत्मा में लीन हो जाता है, वह योगी सम्यक् चारित्र धारण करने वाला होता है और वही मोक्ष को पाता है ॥ ८३ ॥ गाथा - पुरिसायारो अप्पा जोई वरणारणदंसणसमग्गो । जो यदि सो जोई पावहरो हवदि हिंदो ॥ ८४ ॥ छाया - पुरुषाकारः आत्मा योगी वरज्ञानदर्शनसमग्रः । यः ध्यायति सः योगी पापहरः भवति निर्द्वन्द्वः ॥ ८४ ॥ अर्थ- जो आत्मा पुरुष के आकार है, योगी ( गृह त्यागी ) है, केवलज्ञान और केवलदर्शन सहित है । ऐसी आत्मा का जो मुनि ध्यान करता है वह पापों को दूर करने वाला और रागद्वेष के झगड़ों से रहित है ॥ ८४ ॥ गाथा - एवं जिणेहि कहियं सवरणारणं सावयाणं पुण सुसु । संसारविरणासयरं सिद्धियरं कारणं परमं ॥ ८५ ॥ छाया - एवं जिनैः कथितं श्रमणानां श्रावकारणां पुनः शृणुत । संसारविनाशकरं सिद्धिकरं कारणं प्रथमम् ॥ ८५ ॥

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