Book Title: Ashtpahud
Author(s): Parasdas Jain
Publisher: Bharatvarshiya Anathrakshak Jain Society

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Page 148
________________ [ १२०] गाथा-पंचसु महव्वदेसु य पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु। जो मूढो अण्णाणी ण हु कालो भणइ झाणस्स ॥ ७५॥ छाया- पंचसु महाव्रतेषु च पंचसु समितिषु तिसृषु गुप्तिषु । - यः मूदः अज्ञानी न स्फुटं कालः भणति ध्यानस्य ।। ७५ ॥ अर्थ- जो जीव पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्तियों के स्वरूप को नहीं जानता है वह ऐसा कहता है कि वास्तव में यह ध्यान का समय नहीं है।।७५॥ गाथा- भरहे दुस्समकाले धम्मज्माणं हवेइ साहुस्स । तं अप्पसहावठिदे ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी ॥ ७६ ।। छाया- भरते दुःषमकाले धर्मध्यानं भवति साधोः । तदात्मस्वभावस्थिते न हि मन्यते सोऽपि अज्ञानी ॥ ७६ ॥ अर्थ- इस भरतक्षेत्र में पंचम काल में दिगम्बर साधु के धर्मध्यान होता है और वह ध्यान आत्मा की भावना में लगे हुए मुनि के ही होता है, ऐसा जो नहीं मानता है वह पुरुष भी अज्ञानी है ॥ ७६॥ गाथा- अजवि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहइ इंदत्तं । लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुआ णिव्वुदि जंति ॥ ७७ ।। छाया- अद्यापि त्रिरत्नशुद्धा आत्मानं ध्यात्वा लभन्ते इन्द्रत्वम् । लौकान्तिकदेवत्वं ततः च्युक्त्वा निर्वाणं यान्ति ॥ ७ ॥ अर्थ- इस पंचम काल में भी मुनि रत्नत्रय से पवित्र होते हैं । वे आत्मा का ध्यान करके इन्द्र का पद तथा लौकान्तिक देवों का पद पाते हैं और वहां से चय कर मोक्ष प्राप्त करते हैं ॥ ७७ ॥ गाथा- जे पावमोहियमई लिंग घेत्तूण जिणवरिंदाणं । . पावं कुणंति पावा ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि ॥ ७८ ।। छाया- ये पापमोहितमतयः लिंगं गृहीत्वा जिनवरेन्द्राणाम् । पापं कुर्वन्ति पापाः ते त्यक्ता मोक्षमार्गे ॥७८ ॥

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