Book Title: Ashtpahud
Author(s): Parasdas Jain
Publisher: Bharatvarshiya Anathrakshak Jain Society

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Page 140
________________ [ ११२] छाया-विषयकषायैः युक्तः रुद्रः परमात्मभावरहितमनाः।। __ स न लभते सिद्धिसुखं जिनमुद्रापराङ्मुखः जीवः ।।४।। अर्थ--जो जीव विषय कषायों में आसक्त (लीन) है, रुद्र परिणामी है अर्थात् हिंसादि पापों में हर्ष मानता है, और जिसके मनमें परमात्मा की भावना नहीं है, वह जीव जिनमुद्रा से भ्रष्ट होता है इसलिए मोक्षसुख को नहीं पाता है ॥४६॥ गाथा-जिणमुदं सिद्धिपुहं हवेइ णियमेण जिणवरुहिट्ठा । सिविणे वि ण रुच्चइ पुण जीवा अच्छंति भवगहणे ॥४७॥ छाया--जिनमुद्रा सिद्धिसुखं भवति नियमेन जिनवरोद्दिष्टा। . स्वप्रेऽपि न रोचते पुनः जीवाः तिष्ठन्ति भवगहने ॥४७॥ अर्थ-जिनदेव के द्वारा कही हुई जिनमुद्रा ही निश्चय से मोक्षसुख है अर्थात परम्परा से मोक्ष का कारण है। जिन जीवों को यह जिनमुद्रा स्वप्न में भी अच्छी नहीं लगती वे संसार रूपी घने बन में रहते हैं ॥४॥ गाथा-परमप्पय झायंतो जोई मुच्चेइ मलदलोहेण । णादियदि एवं कम्मं णिद्दिटुं जिणवरिदेहिं ॥४८।। छाया-परमात्मानं ध्यायन् योगी मुच्यते मलदलोभेन । नाद्रियते नवं कर्म निर्दिष्टं जिनवरेन्द्रैः॥४८॥ अर्थ-परमात्मा का ध्यान करता हुआ योगी पाप उत्पन्न करने वाले लोभ से छुट जाता है। तथा लोभरहित मुनि नवीन कर्मों को नहीं बांधता है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है ॥४॥ गाथा होऊण दिढचरित्तो दिढसम्मत्तेण भावियमईयो। झायंतो अप्पाणं परमपयं पावए जोई ॥४धा छाया-भूत्वा दृढ़चरित्रः दृढ़सम्यक्त्वेन भावितमतिः। ध्यायन्नात्मानं परमपदं प्राप्नोति योगी ॥४॥ अर्थ-इस प्रकार योगी दृढ़ सम्यक्त्व और चारित्र को मन में धारण करके आत्मा का ध्यान करता हुआ उत्कृष्ट पद अर्थात मोक्ष को प्राप्त करता है ॥४॥

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