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[११४] छाया-उग्रतपसा ऽज्ञानी यत् कर्म क्षपयति भवैर्बहुकैः।
__ तज्ज्ञानी त्रिभिः गुप्तः क्षपयति अन्तर्मुहूर्तेन ।। ५३ ॥ अर्थ-अज्ञानी मुनि कठिन तप के द्वारा करोड़ों जन्म में जितने कर्मों का नाश
करता है, उतने कर्मों को ज्ञानी मुनि तीन गुप्तियों के द्वारा अन्तर्मुहूर्त में नाश कर देता है ॥ ५३॥
गाथा-सुहजोएण सुभावं परदव्वे कुणइ रागदो साहू।
सो तेण हु अण्णाणी णाणी एत्तो हु विवरीओ॥५४॥
छाया-शुभयोगेन सुभावं परद्रव्ये करोति रागतः साधुः।
सः तेन तु अज्ञानी ज्ञानी एतस्मात्तु विपरीतः ॥ ५४॥
अर्थ-साधु इष्टवस्तु के सम्बन्ध से परद्रव्य में रागभाव करता है। उस रागभाव
से वह साधु अज्ञानी कहलाता है और इससे उल्टे परिणाम वाला ज्ञानी कहलाता है ॥ ५४॥
गाथा-आसवहेदू य तहा भावं मोक्खस्स कारणं हवदि।
सो तेण हु अण्णाणी आदसहावा हु विवरीओ ॥ ५५॥ छाया-आस्रवहेतुश्च तथा भावः मोक्षस्य कारणं भवति ।
सः तेन तु अज्ञानी आत्मस्वभावात्तु विपरीतः ।। ५५ ।।
अर्थ-जैसे परद्रव्य में रागभाव आस्रव का कारण कहा गया है, वैसे ही मोक्ष
का कारण रागभाव भी आस्रव का कारण होता है। उस रागभाव से वह साधु अज्ञानी हो जाता है जो आत्मा के स्वभाव से विपरीत है ॥ ५५ ।।
गाथा-जो कम्मजादमइओ सहावणाणस्स खंडदूसयरो।
सो तेण दु अण्णाणी जिणसासणदूसगो भणिदो ॥ ५६ ॥ छाया-यः कर्मजातमतिकः स्वभावज्ञानस्य खण्डदृषणकरः।
सः तेन तु अज्ञानी जिनशासनदूषकः भणितः ॥ ५६ ॥