Book Title: Ashtpahud
Author(s): Parasdas Jain
Publisher: Bharatvarshiya Anathrakshak Jain Society

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Page 131
________________ [ १०३] अर्थ-जो मुनि अपनी आत्मा में लीन है अर्थात् श्रद्धान करता है वह नियम से . सम्यग्दृष्टि है। तथा वही सम्यक्त्व परिणाम वाला मुनि दुष्ट आठों कर्मों का नाश करता है ॥१४॥ गाथा-जो पुण परदव्वरओ मिच्छादिट्ठी हवेइ सो साहू । मिच्छत्तपरिणदो उण वज्झदि दुट्ठकम्मेहिं ॥१५॥ । छाया-यः पुनः परद्रव्यरतः मिथ्यादृष्टिः भवति सः साधुः । मिथ्यात्वपरिणतः पुनः बध्यते दुष्टाष्टकर्मभिः ॥१५॥ अर्थ-जो मुनि स्त्रीपुत्रादि पर पदार्थों में राग करता है वह मिथ्यादृष्टी होता है। तथा मिथ्यात्व परिणाम वाला वह मुनि दुष्ट आठों कर्मों से बँधता है ॥१५॥ गाथा-चरदव्वादो दुग्गइ सद्दव्वादो हु सग्गई होई। इय णाऊण सव्वे कुणह रई विरय इयरम्मि ॥१६॥ छाया-परद्रव्यात् दुर्गतिः स्वद्रव्यात् स्फुटं सुगतिः भवति। इति ज्ञात्वा स्वद्रव्ये कुरुत रतिं विरतिं इतरस्मिन् ॥१६॥ अर्थ-दूसरे पदार्थ में राग करने से खोटी गति में उत्पन्न होता है और अपनी आत्मा में प्रेम करने से अच्छी गति प्राप्त होती है। ऐसा जानकर हे भव्यजीव ! तुम अपनी आत्मा में प्रेम करो और दूसरे पदार्थों में राग मत करो ॥१६॥ गाथा-श्रादसहावादण्णं सचित्ताचित्तमिस्सियं हवइ । तं परदव्वं भणियं अवितत्थं सव्वदरसीहिं ॥१७॥ छाया-आत्मस्वभावादन्यत् सचित्ताचित्तमिश्रितं भवति । तत् परद्रव्यं भणितं अवितथं सर्वदर्शिभिः॥१७॥ अर्थ-आत्मस्वभाव से भिन्न जो स्त्री पुत्रादि चेतन पदार्थ, धनधान्यादि अचेतन पदार्थ, और आभूषणादि सहित स्त्रीपुत्रादि मिश्र पदार्थ हैं वे परद्रव्य हैं, ऐसा परद्रव्य का सच्चा स्वरूप सर्वज्ञ भगवान ने कहा है ॥१७॥ गाथा-दुट्ठकम्मरहियं अणोवमं णाणविग्गहं णिच्छ । सुद्धं जिणेहिं कहियं अप्पाणं हवइ सद्दव्वं ॥१८॥

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