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. [ ५२ ] अर्थ- आत्मा के भावों को शुद्ध करने के लिये धनधान्यादि बाह्य परिग्रह का
त्याग किया जाता है, इस लिये रागद्वेषादि अन्तरङ्ग परिग्रह सहित जीव के बाह्य परिग्रह का त्याग व्यर्थ ही हैं।
गाथा- भावरहिओ ण सिज्झइ जइ वि तवं चरइ कोडिकोडी मो।
जम्मंतराइ बहुसो लंबियहत्थो गलियवत्थो ॥ ४ ॥ छाया- भावरहितः न सिद्ध्यति यद्यपि तपश्चरति कोटि कोटी ।
जन्मान्तराणि बहुशः लम्बितहस्तः गलितवस्त्रः ॥ ४ ॥ अर्थ- आत्मा की भावनारहित जीव यदि करोड़ों जन्म तक भुजाओं को लटका
कर तथा वस्त्रों को त्याग तपश्चरण भी करे तो भी वह मोक्ष नहीं पाता हैं। इस लिये भाव ही मोक्ष प्राप्ति का मुख्य कारण है ॥
गाथा-परिणामम्मि असुद्धे गंथे मुंचेइ बाहिरे य जई।
बाहिरगंथच्चाओ भावविहूणरस किं कुणइ ॥५॥ छाया- परिणामे अशुद्ध ग्रन्थान् मुञ्चति बाह्यान् चयदि ।
बाह्यग्रन्थत्यागः भावविहीनस्य किं करोति ॥५॥ अर्थ- यदि जिन लिंगधारी मुनि अशुद्ध परिणाम होते हुए बाह्य परिग्रह का त्याग
करता है, तो आत्मा की भावनारहित मुनि का वह बाह्य परिग्रह का त्याग कर्मों की निर्जरा आदि किसी भी कार्य को सिद्ध नहीं करता है ।।
गाथा- जाणहि भावं पढमं किं ते लिंगेण भावरहिएण।
__पंथिय ! सिवपुरिपंथं जिण उवइठ्ठ पयत्तेण ॥६॥ छाया- जानीहि भावं प्रथमं किं ते लिंगेन भावरहितेन ।
पथिक ! शिवपुरीपन्थाः जिनोपदिष्टः प्रयत्नेन ॥६॥ अर्थ- हे पथिक ! शिवपुरी का मार्ग जिनेन्द्र देव के द्वारा प्रयत्नपूर्वक बताया गया
भाव हो है, इसलिए तू भाव ही का मोक्ष का मुख्य कारण जान । क्योंकि भावरहित द्रव्यलिंग (नग्नमुद्रा) धारण करने से तेरा क्या कार्य सिद्ध हो सकता है अर्थात् कुछ भी नहीं ।।