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[ १४ ] गाथा-णाणी सिव परमेट्ठी सव्वण्हू विण्हु चउमुहो बुद्धो।
अप्पो वि य परमप्पो कम्मविमुक्कोय होइ फुडं ॥१५॥ छाया-ज्ञानी शिवः परमेष्ठी सर्वज्ञः विष्णुः चतुर्मुखः बुद्धः ।
आत्मा अपि च परमात्मा कर्मविमुक्तश्च भवति स्फुटम् ॥ १५१ ।। अर्थ-सम्यग्दर्शन के प्रभाव से यह संसारी जीव कर्मबन्धन से छूटकर परमात्मा
हो जाता है, जिसको ज्ञानी (केवल ज्ञानी) शिव (कल्याणरूप), परमेष्ठी (परमपद में स्थित) सर्वज्ञ (सब पदार्थों को जाननेवाला) विष्णु (ज्ञान के द्वारा समस्त लोक में व्यापक) चतुर्मुख (सब ओर देखने वाला) बुद्ध (ज्ञाता) आदि कहते हैं ॥ १५१ ॥
गाथा-इय घाइकम्ममुक्को अट्ठारहदोसवजिओ सयलो।
तिहुवणभवणपदीवो देऊ मम उत्तमं बोहिं ॥१५२॥ छाया-इति घातिकर्ममुक्तः अष्टादशदोषवर्जितः सकलः ।
त्रिभुवनभवनप्रदीपः ददातु मह्यं उत्तमां बोधिम् ॥ १५२ ॥ अर्थ-इस प्रकार घातिया कर्मों से रहित, १८ दोष रहित, परमौदारिकशरीर सहित,
तीनलोक रूपी घर को प्रकाशित करने को दीपक के समान श्रीअरहन्तदेव मुझे रत्नत्रय प्रदान करें। इस प्रकार आचार्य श्रीकुन्दकुन्दस्वामी प्रार्थना करते हैं ॥ १५२ ॥
गाथा-जिणवरचरणंबुरुहं णमंति जे परमभत्तिरायेण ।
ते जम्मवेलिमूलं खणंति वरभावसत्येण ॥१५३॥ छाया-जिनवरचरणाम्बुरुहं नमन्ति ये परमभक्तिरागेण ।
ते जन्मवल्लीमूलं खनन्ति वरभावशस्त्रेण ॥१५३॥ अर्थ-जो भव्यपुरुष उत्तम भक्ति और अनुराग से जिनभगवान् के चरणकमलों
को नमस्कार करते हैं, वे उत्तम भावरूप हथियार से संसाररूप बेल को जड़ से खोद देते हैं अर्थात् मिथ्यात्व का सर्वथा नाश करते हैं ॥ १५३ ॥
गाथा-जह सलिलेण ण लिप्पइ कमलिणिपत्तं सहावपयडीए।
तह भावेण ण लिप्पइ कसायविसएहिं सप्पुरिसो ॥१५४॥