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गाथा - इय भावपाहुडमिगं सव्वं बुद्धेहि देसियं सम्मं । जो पढइ सुइ भावइ सो पावइ अविचलं ठाणं ॥१६५॥
छाया — इति भावप्राभृतमिदं सर्वं बुद्धैः देशितं सम्यक् ।
यः पठति शृणोति भावयति स प्राप्नोति अविचलं स्थानम् ॥१६५॥
अर्थ — इस प्रकार सर्वज्ञ देव ने इस भावप्राभृत नामक शास्त्र का भलीभांति उपदेश दिया है। जो भव्यजीव इसको उत्तम रीति से पढ़ता है, सुनता है और भावना करता है वह निश्चल स्थान अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करता है ॥ १६५ ॥