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[८३ ] अर्थ-हे मुनि ! तूने आहार, भय, परिग्रह और मैथुन संज्ञाओं से मोहित और
पराधीन होकर अनादि काल से संसाररूपी वन में भ्रमण किया है ॥ ११२ ॥
गाथा- बाहिरसयणत्तावणतरूमूलाईणि उत्तरगुणाणि ।
पालहि भावविसुद्धो पूयालाहं ण ईहंतो ॥ ११३ ॥ छाया-बहिःशयनातापनतरुमूलादीन् उत्तरगुणान् ।
पालय भावविशुद्धः पूजालाभं न ईहमानः ॥ ११३॥ अर्थ-हे मुनि । तू आत्मभावना से पवित्र होकर पूजा, लाम आदि न चाहते हुए
खुले मैदान में सोना, आतापनयोग अर्थात् पर्वत की चोटी पर धूप में खड़े होकर ध्यान लगाना और वृक्ष के नीचे बैठना आदि उत्तर गुणों का पालन कर ॥ ११३॥
गाथा- भावहि पढमं तचं विदियं तदियं चउत्थ पंचमयं । .
__ तियरणसुद्धो अप्पं अणाइणिहणं तिवग्गहरं ॥ ११४ ॥ छाया- भावय प्रथमं तत्त्वं द्वितीयं तृतीयं चतुर्थ पञ्चमकम् ।
त्रिकरणशुद्धः आत्मानं अनादिनिधनं त्रिवर्गहरम् ॥ ११४॥ अर्थ- हे मुनि ! तू मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से शुद्ध होकर
पहले जीव तत्व, दूसरे अजीव तत्व, तीसरे आस्रव तत्व, चौथे बन्धतत्व, पांचवें संवर तत्व और आदि अन्त रहित तथा धर्म, अर्थ, काम इन तीन पुरुषार्थों को हरने वाले मोक्षरूप आत्मा का ध्यान कर ॥ ११४ ॥
गाथा-जाव ण भावइ तच्चं जाव ण चिंतेइ चिंतणीयाई।
. ताव ण पावइ जीवो जरमरणविवज्जियं ठाणं ॥ ११५ ॥ छाया- यावन्न भावयति तत्वं यावन्न चिन्तयति चिन्तनीयानि ।
.... तावन्न प्राप्नोति जीवः जरामरणविवर्जितं स्थानम् ॥ ११५ ॥ अर्थ- जब तक यह आत्मा जीवादि तत्वों की भावना नहीं करता है और .. चिन्तवन करने योग्य धर्मध्यान, शुक्लध्यान तथा अनुप्रेक्षा (भावना)
आदि का चिन्तवन नहीं करता है, तब तक जरामरणरहित स्थान अर्थात् -- मोक्ष को नहीं पाता है ॥ ११५ ॥