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[ २ ] छाया- इति ज्ञात्वा क्षमागुण ! क्षमस्व त्रिविधेन सकलजीवान् ।
- चिरसंचितक्रोधशिखिनं वरक्षमासलिलेन सिंच ॥ १०६ ॥ अर्थ- हे क्षमागुण के धारक मुनि ! ऐसा जान कर मन वचन काय से सब
जीवों को क्षमा कर । तथा बहुत समय से इकट्ठी की हुई क्रोधरूपी अग्नि को उत्तम क्षमारूपी जल से शान्त कर ॥१०॥
गाथा- दिक्खाकालाईयं भावहि अवियार दसणविसुद्धो।
उत्तमबोहिणिमित्तं असारसाराणि मुणिऊण ॥११०॥ छाया- दीक्षाकालादीयं भावय अविचार ! दर्शनविशुद्धः ।
उत्तमबोधिनिमित्तं असारसाराणि ज्ञात्वा ॥ ११०॥ अर्थ-हे विवेकरहित मुनि ! तू सम्यग्दर्शन से पवित्र होता हुआ सार और असार
पदार्थों को जान कर श्रेष्ठ रत्नत्रय को प्राप्त करने के लिए दीक्षाकाल आदि के वैराग्य परिणाम का विचार कर ॥ ११०॥ .
गाथा- सेवहि चउविहलिंगं अब्भंतरलिंगसुद्धिमावएणो।
बाहिरलिंगमकजं होइ फुडं भावरहियाणं ॥ १११ ॥ छाया- सेवस्व चतुर्विघलिंग अभ्यन्तरलिंगशुद्धिमापन्नः।
बाह्यलिंगमकार्यं भवति स्फुटं भावरहितानाम् ॥ १५१ ॥ अर्थ-हे मुनि ! तु अन्तरङ्ग शुद्धि को प्राप्त होता हुआ केशलोंच, वस्त्रत्याग, स्नान
त्याग, और पीछी कमण्डलु रखना इन चार बाह्य लिंगों को धारण कर. क्योंकि शुद्धभावरहित जीवों का बाह्यलिंग निश्चय से निरर्थक ही होता है ॥ ११०॥
गाथा- आहारभयपरिग्गहमेहुणसण्णाहि मोहिओसि तुम।
भमिओ संसारवणे अणाइकालं अणप्पवसो ॥ ११२ ॥ छाया- आहारभयपरिप्रहमैथुनसंज्ञाभिः मोहितोऽसि त्वम् ।
भ्रमितः संसारवने अनादिकालं अनात्मवशः ।। ११२ ।।