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[८०] -- छाया-सचित्तभक्तपानं गृद्धथा दर्पण अधीः प्रभुज्य।.. . प्राप्तो ऽसि तीव्रदुःखं अनादिकालेन त्वं चित्त ! ॥ १० ॥ अर्थ-हे जीव ! तूने अज्ञानी होकर अत्यन्त तृष्णा और घमण्ड के कारण सचित्त
(जीवसहित) भोजन व जलादि ग्रहण करके अनादि काल से अत्यन्त कठोर दुःख पाया ॥ १०२॥
गाथा-कंद मूलं बीयं पुप्फ पत्तादि किंचि सञ्चित्तं ।
असिऊण माणगव्वं भमिश्रोसि अणंतसंसारे ॥ १०३ ॥ ' छाया-कन्दं मूलं बीजं पुष्पं पत्रादि किञ्चित् सचित्तम् ।
अशित्वा मानगर्वे भ्रमितः असि अनन्तसंसारे ॥ १०३ ॥ अर्थ हे जीव ! तूने कन्द, मूल, बीज, फूल, पत्ते आदि कुछ सचित्त बस्तुओं को
मान ( स्वाभिमान) और घमण्ड से खाकर इस अनन्त संसार में भ्रमण किया है ।। १०३॥
गाथा-विणयं पंचपयारं पालहि मणवयणकायजोएण।
अविणयणरा सुविहियं तत्तो मुत्तिं न पावंति ॥ १०४ ॥ छाया-विनयं पंचप्रकारं पालय मनोवचनकाययोगेन ।
अविनतनराः सुविहितां ततो मुक्तिं न प्राप्नुवन्ति ॥ १०४ ॥ अर्थ हे मुनि ! तू मन, वचन, काय से ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और उपचार
५ प्रकार की विनय का पालन कर, क्योंकि अविनयी मनुष्य तीर्थंकर पद और मोक्ष को नहीं पाते हैं ॥१०४॥ -
गाथा-णियसत्तिए महाजस भत्तीराएण णिच्चकालम्मि।
तं कुण जिणभत्तिपरं विजावच्चं दसवियप्पं ॥१०॥ छाया-निजशक्त्या महायशः ! भक्तिरागेण नित्यकाले ।
त्वं कुरू जिनभक्तिपरं वैयावृत्त्यं दशविकल्पम् ॥ १०५ ।। अर्थ-हे महायशवाले मुनि ! तू भक्ति के प्रेम से अपनी शक्तिपूर्वक सदैव जिनेन्द्रदेव
की भक्ति में तत्पर करनेवाली दशप्रकार की वैयावृत्त्य का पालन कर ॥१०॥