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. [५] हुआ हूँ । इसलिए अब इनको जला कर अनन्तज्ञानादि गुणरूप चेतना
को प्रगट करूं ॥ ११ ॥ गाथा- सीलसहस्सद्वारस चउरासीगुणगणाण लक्खाई।
___ भीवहि अणुदिणु णिहिलं असप्पलावेण किं बहुणा ॥ १२०॥
छाया- शीलसहस्राष्टादश चतुरशीतिगुणगणानां लक्षाणि ।
भावय अनुदिनं निखिलं असत्प्रलापेन किं बहुना ॥ १२० ॥ अर्थ-हे मुनि ! तू प्रतिदिन १८००० प्रकार का शील और ८४००००० प्रकार के
गुण इन सब का चिन्तवन कर । व्यर्थ ही बहुत कहने से क्या लाभ है॥१२०॥
गाथा- झायहि धम्म सुक्कं अट्ट रउदं च झाण मोत्तूण ।
रूहट्ट झाइयाई इमेण जीवेण चिरकालं ॥ १२१ ॥ छाया- ध्याय धर्म्य शुक्लं आर्त रौद्रं च ध्यानं मुक्त्वा ।
रौद्राते ध्याते अनेन जीवेन चिरकालम् ॥ १२१ ॥ अर्थ- हे मुनि ! तू आर्तध्यान और रौद्रध्यान को छोड़ कर धर्म-ध्यान और शुक्ल
ध्यान का चिन्तवन कर, क्योंकि इस जीव ने अनादिकाल से आर्तध्यान और रौद्रध्यान का ही चिन्तवन किया है। १२१॥
गाथा-जे केवि दव्वसवणा इंदियसुहाउला ण छिदंति ।
छिंदंति भावसवणा झाणकुठारेहिं भवरूक्खं ॥ १२२॥ छाया-ये केऽपि द्रव्यश्रमणाः इन्द्रियसुखाकुलाः न छिन्दन्ति ।
छिन्दन्ति भावश्रमणाः ध्यानकुठारैः भववृक्षम् ॥ १२२॥ अर्थ-जो इन्द्रिय जनित सुखों से व्याकुल द्रव्यलिंगी मुनि हैं वे संसाररूपी वृक्ष
को नहीं काटते हैं, किन्तु जो भावलिंगी मुनि हैं वे ही ध्यान रूपी कुल्हाड़ों से संसार रूपी वृक्ष को काटते हैं ॥ १२२ ॥
गाथा-जह दीवो गब्भहरे मारुयबाहाविवजिओ जलइ।
तह रायानिलरहिरो झाणपईवो वि पज्जलई ॥ १२३ ॥