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बीज जल जाने पर भावलिंगी मुनियों का संसार रूपी अंकुर नहीं उगता है ।। १२६ ।।
गाथा - भावसवणो वि पावइ सुक्खाई दुहाई दव्वसवणो या इय गाउं गुणदोसे भावेण य संजुदो होह ॥ १२७ ॥
छाया - भावश्रमणः अपि प्राप्नोति सुखानि दुःखानि द्रव्यश्रमणश्च । इति ज्ञात्वा गुणदोषान् भावेन च संयुतः भव ।। १२७ ।।
अर्थ - भावलिंगी मुनि सुखों को पाता है और द्रव्यलिंगी मुनि दुःखों को पाता है । इस प्रकार गुण और दोषों को जान कर भाव सहित संयमी बनो ॥ १२७ ॥
गाथा - तित्थयर गहराई अभुदयपरंपराई सोक्खाईं ।
पावंति भावसहिया संखेवि जिणेहिं वज्जरियं ॥ १२८ ॥ छाया— तीर्थकरगणधरादीनि अभ्युदयपरम्पराणि सौख्यानि । प्राप्नुवन्ति भावसहिताः संक्षेपेण जिनैः भणितम् ॥ १२८ ॥
अर्थ - भावलिंगी मुनि अनेक ऐश्वर्य वाले तीर्थंकर और गणधरादि के सुखों को पाते हैं, ऐसा संक्षेप से जिनेन्द्रदेव ने कहा है ।। १२८ ॥
गाथा— ते धण्णा ताण णमो दंसणवरणाणचरणसुद्धाणं । भावसहियाण णिचं तिविहेण परणट्टमायाणं ॥ १२६ ॥ छाया - ते धन्याः तेभ्यः नमः दर्शनवरज्ञान चरणशुद्धेभ्यः । भाव सहितेभ्यः नित्यं त्रिविधेन प्रणष्टमायेभ्यः ॥ १२६ ॥
अर्थ-वे मुनि धन्य (पुण्यवान ) हैं और उनको सदा मन, वचन, काय से हमारा नमस्कार हो, जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र से पवित्र हैं, आत्मानुभवरूप शुद्ध परिणाम सहित हैं तथा छल कपटरहित हैं ॥ १२६॥
• इड्ढिमतुलं विउव्विय किंणरकिंपुरिस मरखयरेहिं । तेहिं विण जाइ मोहं जिरणभावण भावि
गाथा-
धीरो ॥ १३० ॥