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[७] .: गाथा-जह पत्थरो ण भिज्जइ परिट्टिओ दीहकालमुकरण । ...... तह साहू वि ण भिज्जइ उवसग्गपरीसहेहितो ॥५॥ ___ छाया-यथा प्रस्तरः न भिद्यते परिस्थितः दीर्घकालमुदकेन ।
तथा साधुरपि न भिद्यते उपसर्गपरीषहेभ्यः ॥१५॥ अर्थ-जैसे पत्थर बहुत समय तक पानी में डूबा हुआ भी अन्दर से गीला नहीं
होता है, वैसे ही साधु उपसर्ग और परीषहों से चलायमान नहीं होता है॥६५॥
गाथा-भावहि अणुवेक्खाओ अवरे पणवीसभावणा भावि ।
___ भावरहिएण किं पुण बाहिरलिंगेण कायव्वं ।। ६६ ॥ - छाया-भावय अनुप्रेक्षा अपराः पंचविंशति भावना भावय ।
भावरहितेन किं पुनः बाह्यलिंगेन कर्तव्यम् ॥ ६ ॥ अर्थ-हे मुनि ! तू अनित्यादि १२ भावनाओं और पांच महाव्रत की २५ भावनाओं
का चिन्तवन कर, क्योंकि शुद्धभावरहित नग्नवेष से क्या कार्य सिद्ध हो सकता है ॥६६॥
गाथा-सव्वविरओ वि भावहि णव य पयत्थाई सत्त तच्चाई।
जीवसमासाइं मुणी चउदसगुणठाणणामाई ॥६७ ।। छाया-सर्वविरतः अपि भावय नव पदार्थान् सप्त तत्वानि ।
जीवसमासान् मुने ! चतुर्दशगुणस्थाननामानि ॥१७॥ अर्थ-हे मुनि ! तू महाव्रत का धारक होने पर भी : पदार्थ, ७ तत्व, १४ जीव
समास और १४ गुणस्थानों का चिन्तवन कर ॥१७॥
गाथा-णवविहबंभं पयडहि अब्बंभं दसविहं पमोत्तूण ।
__ मेहुणसण्णासत्तो भमित्रओसि भवण्णवे भीमे ॥ ६ ॥ छाया-नवविधब्रह्मचर्य प्रकटय श्रब्रह्म दशविधं प्रमुच्य ।
मैथुनसंज्ञासक्तः भ्रमितो ऽसि भवार्णवे भीमे ॥ ६ ॥