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[ ७७ ] अर्थ-हे मुनि ! तू शुद्ध परिणामों से हास्य, रति, अरति, शोक, भय, ग्लानि,
स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद इन , नोकषाय के समूह को और एकान्त, विपरीत, विनय, संशय, अज्ञान इन ५ प्रकार के मिथ्यात्व का त्याग कर, तथा जिन भगवान् की आज्ञा से जिन-प्रतिमा, जैनशास्त्र और निर्ग्रन्थगुरु की भक्ति कर ॥११॥
गाथा-तित्थयरभासियत्थं गणधरदेवेहिं गंथियं सम्म ।
भावहि अणुदिणु अतुलं विसुद्धभावेण सुयणाणं ॥१२॥ छाया-तीर्थंकरभाषितार्थ गणधरदेवैः प्रथितं सम्यक् ।
___ भावय अनुदिनं अतुलं विशुद्धभावेन श्रुतज्ञानम् ॥१२॥ अर्थ-हे मुनि ! तू उस अनुपम श्रुतज्ञान का शुद्धभाव से चिन्तवन कर, जिसका
अर्थ तीर्थकर भगवान के द्वारा कहा गया है और गणधरदेवों ने भलीभांति जिसकी शास्त्ररूप रचना की है ॥ १२ ॥
गाथा-पाऊण णाणसंलिलं हिम्महतिसडाहसोसउम्मुक्का ।
हुँति सिवालयवासी तिहुवणचूडामणी सिद्धा ॥३॥ छाया-प्राप्य ज्ञानसलिलं निर्मथ्यतृषादाहाशोषोन्मुक्ता।
भवन्ति शिवालयवासिनः त्रिभुवनचूडामणयः सिद्धाः ॥ ३॥ अर्थ-श्रुतज्ञानरूपी जल को पीकर जीव सिद्ध होते हैं जो कठिनता से नाश
होने योग्य तृष्णा, सन्ताप और शोष (रसरहित होना) आदि रहित हैं मोक्षस्थान में निवास करने वाले हैं, तथा तीनों लोक के चूड़ामणि हैं ॥१॥
गाथा-दस दस दो सुपरीसह सहदि मुणी सयलकाल कारण।
सुत्तेण अप्पमत्तो संजमघादं पमुत्तूण ॥ ६४ ॥ छाया-दश दश द्वौ सुपरीषहान् सहस्व मुने ! सकलकालं कायेन ।
सूत्रेण अप्रमत्तः संयमघातं प्रमुच्य ॥६४ ॥ अर्थ-हे मुनि ! तू जैन शास्त्र के अनुसार प्रमादरहित होकर और संयम का घात
करने वाली क्रिया को छोड़कर शरीर से सदा बाईस परीषहों को सहन कर ॥१४॥