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[ ७५ ] . छाया-श्रद्दधाति च प्रत्येति च रोचते च तथा पुनरपि स्पृशति ।
पुण्यं भोगनिमित्तं नहि तत् कर्मक्षयनिमित्तम् ।।४।। अर्थ-जो पुरुष पुण्य क्रियाओं को धर्म रूप श्रद्धान करता है अर्थात् मोक्ष का
कारण समझता है । वैसा ही जानता प्रेम करता है, और आचरण करता है, उसका पुण्य भोग का ही कारण है, कर्मों के नाश का कारण नहीं है ॥४॥
गाथा-अप्पा अप्पम्मि रओ रायादिसु सयलदोसपरिचत्तो।
संसारतरणहेदू धम्मोत्ति जिणेहिं णिघि8 ।। ८५॥ ....... छाया-आत्मा आत्मनि रतः रागादिषु सकलदोषपरित्यक्तः।
संसारतरणहेतुः धर्म इति जिनैः निर्दिष्टम् ॥८५॥ अर्थ-रागद्वेषादि सब दोषों से रहित होकर जो आत्मा आत्मा में लीन होता है
वह धर्म है और संसार समुद्र से पार होने का कारण है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है ॥५॥
गाथा-अह पुण अप्पा णिच्छदि पुण्णाई करेदि हिरवसेसाई।
तह वि ण पावदि सिद्धिं संसारत्थो पुणो भणिदो ।।६।। छाया-अथ पुनः आत्मानं नेच्छति पुण्यानि करोति निरवशेषानि ।
तथापि न प्राप्नोति सिद्धिं संसारस्थः पुनः भणितः ।।८।। अर्थ-अथवा जो पुरुष आत्मा के स्वरूप का विचार नहीं करता है और पूजादानादि
सब पुण्य क्रियाओं को करता है, तो भी वह मोक्ष को नहीं पाता है । उसको संसारी ही कहा गया है।॥८६॥
गाथा-एएण कारणेण य तं अप्पा सद्दहेह तिविहेण।
जेण य लभेह मोक्खं तं जाणिजह पयत्तेण ॥ ८७॥ छाया-एतेन कारणेन च तं आत्मानं श्रद्धत्त त्रिविधेन।
येन च लभध्वं मोक्षं तं जानीत प्रयत्नेन ॥ ७ ॥ अर्थ-इसी कारण तुम मन, वचन, काय से उस आत्मा का श्रद्धान करो और
उसको यत्नपूर्वक जानो जिससे तुम मोक्ष को प्राप्त करो॥८॥