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[ ७३ ]. अर्थ-शुद्धस्वभाव वाला आत्मा आत्मा में ही है, सो शुद्धभाव जानना चाहिये।
इनमें जो भाव कल्याणरूप (हितकारी) है उसको स्वीकार करो, ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है ॥७७॥
गाथा- पयलियमाणकसाओ पयलियमिच्छत्तमोहसमचित्तो ।
पावइ तिहुवणसारं बोही जिणसासणे जीवो ॥ ८ ॥ छाया-प्रगलितमानकषायः प्रगलितमिथ्यात्वमोहसमचित्तः।।
__ आप्नोति त्रिभुवनसारं बोधिं जिनशासने जीवः ॥८॥ अर्थ-जिन शासन में मानकषाय को पूर्णरूप से नष्ट करने वाला तथा मिथ्यात्व के
उदय से होने वाले मोहभाव के नष्ट होने से समान हृदय वाला (रागद्वेषरहित ) जीव तीन लोक में सारभूत ( उत्तम ) रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग को पाता है ॥७॥
गाथा- विसयविरत्तो सवणो छहसवरकारणाइंभाऊण ।
तित्स्थयरणामकम्मं बंधइ अइरेण कालेण ॥ ७ ॥ छाया-विषयविरक्तः श्रमणः षोडशवरकारणानि भावयित्वा ।
" तीर्थकरनामकर्म बध्नाति अचिरेण कालेन ।। ७६ ॥ अर्थ-पांच इन्द्रियों के विषयों से उदासीन मुनि सोलह कारण भावनाओं का
चिन्तवन करके थोड़े ही समय में तीर्थंकर प्रकृति का प्रबन्ध करता है ।।
गाथा-बारसविहतवयरणं तेरसकिरियांउ भाव तिविहेण ।
धरहि मणमत्तदुरियं णाणांकुसरण मुणिपवर ॥८॥ छाया-द्वादशविधतपश्चरणं त्रयोदश क्रियाः भावय त्रिविधेन ।
धर मनोमत्तदुरितं ज्ञानाङ्कुशेन मुनिप्रवर ! ॥८॥ अर्थ-हे मुनिश्रेष्ठ! तू १२ प्रकार के तप और १३ प्रकार की क्रियाओं को मन,
वचन, काय से चिन्तवन कर तथा मनरूपी मस्त हाथी को ज्ञानरूपी अंकुश से __वश में कर । अनशन, ऊनोदर, व्रतपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन, कायक्लेश, प्रायश्चित्त, वैयावृत्य, स्वाध्याय, विनय, व्युत्सर्ग
और ध्यान ये १२ तप हैं। ५ महाव्रत, ५ समिति और ३ गुप्ति ये १३ प्रकार की क्रिया हैं॥५॥