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[७१ ] अर्थ हे आत्मन् ! तू अन्तरंग भावों के दोषों से सर्वथा शुद्ध होकर जिनलिंग
(नग्नमुद्रा) को प्रकट कर। कारण कि जीव भावों की मलिनता से बाह्य परिग्रह में परिणामों को मलिन करता है ॥७॥
गाथा-धम्मम्मि णिप्पवासो दोसावासो य इच्छुफुल्लसमो।
णिप्फलणिग्गुणयारो णउसवणो णग्गरूवेण ॥७॥ छाया-धर्मे निप्रवासः दोषावासश्च इक्षुपुष्पसमः ।
निष्फलनिर्गुणकारः नटश्रमणः नग्नरूपेण ॥१॥ अर्थ-दयालक्षण, आत्मस्वभाव, दशलक्षण रूप और रत्नत्रय रूप धर्म में जिसका
निवास है, जो ईख के फूल के समान मोक्षादि फल रहित और ज्ञानादि गुणरहित है, वह नग्नपने के भेष में नाचने वाला भाण्ड है ॥७॥
गाथा-जे रायसंगजुत्ता जिणभावणरहियदव्वणिग्गंथा ।
ण लहंति ते समाहिं बोहिं जिणसासणे विमले ॥ ७२ ॥ छाया-ये रागसंगयुक्ताः जिनभावनारहितद्रव्यनिर्ग्रन्थाः ।
__ न लभन्ते ते समाधि बोधिं जिनशासने विमले ॥ अर्थ- जो मुनि रागभावरूप परिग्रह सहित हैं और आत्मस्वरूप की भावना
रहित निर्ग्रन्थ रूप को धारण करते हैं, वे पवित्र जिनमार्ग में कहे हुये ध्यान और रत्नत्रय को नहीं पाते हैं।
गाथा- भावेण होइणग्गो मिच्छत्ताई य दोस चइऊणं ।
पच्छा दव्वेण मुणी पयडदि लिंगं जिणाणाए ॥७३॥ छाया- भावेन भवति नग्नः मिथ्यात्वादींश्च दोषान त्यक्त्वा ।
__ पश्चात् द्रव्येण मुनिः प्रकटयति लिंगं जिनाज्ञया । अर्थ-मुनि पहले मिथ्यात्वादि दोषों को छोड़कर शुद्धभाव से अन्तरंग रूप से नग्न
___ होता है, पीछे जिन भगवान की आज्ञा से बाह्यलिंग को धारण करता है। भावार्थ-भाव पवित्र होने पर ही नग्न रूप धारण करना सार्थक हो सकता है।