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[ ५८ ] अर्थ-हे धीर ! मुनिवर ! तूने इस अनन्त संसार समुद्र में जो अनेक शरीर ग्रहण
किये और छोड़े हैं उनकी कोई गिनती नहीं है ॥२४॥
गाथा-विसवेयणरत्तक्खयभयसत्थग्गहणसंकिलेसाणं ।
आहारूस्ससाणं णिरोहणा खिजए आऊ ॥२५॥ हिमजलणसलिलगुरूयरपव्वयतरुरुहणषडणभंगेहिं । रसविज्जजोयधारण प्रणयपसंगेहि विविहेहिं ।।२६।। इय तिरियमणुयजम्मे सुइरं उववज्जिऊण बहुवारं।
अवमिचुमहादुक्खं तिव्वं पत्तोसि तं मित्त ॥२७॥ छाया-विषवेदनारक्तक्षयभयशस्त्रग्रहणसंक्लेशानाम् ।
आहारोच्छवासानां निरोधनात् क्षीयते आयुः ॥२॥ हिमज्वलनसलिलगुरूतरपर्वततरूरोहणपनभङ्ग । रसविद्यायोगधारणानयप्रसंगैः विविधैः ॥२६॥ इति तिर्यग्मनुष्यजन्मनि सुचिरं उत्पद्य बहुवारम् ।
अपमृत्युमहादुःखं तीव्र प्राप्तो ऽसि त्वं मित्र ! ।।२।। अर्थ-हे मित्र ! तूने तिर्यञ्च और मनुष्य गति में उत्पन्न होकर अनादि काल से
बहुत बार अकाल मृत्यु का.अति कठोर दुःख पाया। आयु समाप्त होने से पहले बाह्य कारणों से शरीर छूट जाना अकाल मृत्यु है। अकाल मृत्यु के निम्नलिखित कारण होते है:विष, तीव्र पीड़ा, रुधिर का नाश, भय, शस्त्रघात, संक्लेशपरिणाम, आहार न मिलना, श्वास का रुकना, बर्फ, अग्नि, जल, बड़े पर्वत अथवा वृक्ष पर चढ़ते समय गिरना, शरीर का नाश, रस बनाने की विद्या के प्रयोग से और अन्याय के कामों से आयु का क्षय होता है ॥२५-२६-२७॥
गाथा-छत्तीसंतिएिण सया छावद्विसहस्सवारमरणाणि।
अंतोमुहुतमज्मे पत्तोसि निगोयवासम्मि ॥२८॥ छाया-षट्त्रिंशत् त्रीणि शतानिषट्षष्टिसहस्रवारमरणानि ।
अन्तर्मुहूर्तमध्ये प्राप्तोऽसि निकोतवासे ॥२८॥