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[ ५७ ]
गाथा - जलथलसिहिपवरगंबर गिरिसरिद रितरुवणाईं सव्वत्तो । वसिसि चिरं कालं तिहुवणमज्झे अणप्पवसो ||२१||
छाया - जलस्थल शिखिपवनाम्बर गिरिस रिहरीतरूवनादिषु सर्वत्र । उषितोऽसि चिरं कालं त्रिभुवनमध्ये ऽनात्मवशः ||२१||
अर्थ - हे जीव ! तूने आत्मभावना के बिना पराधीन होकर तीन लोक में जल, स्थल, अग्नि, वायु, आकाश, पर्वत, नदी, गुफा, वृक्ष और वन आदि सभी स्थानों में बहुत काल तक निवास किया ॥२१॥
गाथा - गसियाइँ पुग्गलाई भुवणोदरवत्तियाई सव्वाई । पत्तोसि तो ण तित्तिं पुरणरूवं ताईं भुंजतो ||२२||
छाया - प्रसिताः पुद्गलाः भुवनोदरवर्तिनः सर्वे ।
प्राप्तोऽसि तन्न तृप्तिं पुनारूपं तान् भुञ्जानः ||२२||
अर्थ - हे जीव ! तूने इस लोक में स्थित सभी पुद्गल परमाणुओं को भक्षण (ग्रहण) किया तथा उनको बार २ भोगता हुआ भी सन्तुष्ट नहीं हुआ ||२१||
गाथा -
- तिहुयणसलिलं सयलं पीयं तिरहा ये पीडिएण तुमे ।
तोवि ण तिराहाच्छेओ जाओ चिंतेह भवमहणं ॥ २३ ॥
छाया - त्रिभुवन सलिलं सकलं पीतं तृष्णया पीडितेन त्वया । तदपि न तृष्णा छेदो जातः चिन्तय भवमथनम् ||२३||
अर्थ- हे जीव ! तूने तृष्णा ( प्यास ) से दुःखी होकर तीनों लोकों का सारा जल पी लिया तो भी तेरी तृष्णा (पास) नहीं मिटी । इसलिए संसार का नश करने वाले रत्नत्रय का विचार कर ॥२३॥
गाथा - गहियाई मुणिवर कलेवराई तुमेयाइँ । ताणं णत्थि पमाणं श्रणंतभवसायरे धीरः ॥ २४॥
छाया - गृहीतोज्झितानि मुनिवर कलेवराणि त्वया अनेकानि । तेषां नास्ति प्रमाणं अनन्तभवसागरे धीर ! ||२४||